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पटना: ऑटोवालों के सामने भींगी बिल्ली क्यों बन जाती है ट्रैफिक पुलिस

पटना जंक्शन गोलंबर पर ऑटोवालों का कब्जा
न्यायाधीशों, वकीलों की नजर भी उनपर जरूर पड़ी होगी
जन प्रतिनिधियों की दिलचस्पी सिर्फ वोट तक ही
पटना में ऑटो वालों का आतंक
कई की अपराधी गिरोहों से साठगांठ
बिहार में ऑटोवाले खुद ही किराया तय करते हैं
पाप में आला अधिकारी से लेकर ट्रैफिक पुलिस तक शामिल

पटना (TBN – वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी)| राजधानी पटना में 16 अप्रैल की अहले सुबह एक ऑटो दुर्घटना में 7 लोगों की मौत हो गई. वह ऑटो थ्री सीटर थी लेकिन उसमें 8 यात्री बैठाए गए थे.इस दुर्घटना के लिए ऑटो ड्राइवर को दोषी ठहराया जा रहा है.

बेशक, ऑटो ड्राइवर जिम्मेवार है, लेकिन पटना की ट्रैफिक पुलिस भी बराबर की जिम्मेवार है. क्योंकि उसकी सहमति से थ्री सीटर ऑटो में 8 यात्रियों को बैठाया जाता है. यानि क्षमता से करीब तिगुने अधिक यात्री बैठाए जाते हैं.

पटना की सड़कों पर आपको क्षमता से दोगुने-तिगुने अधिक यात्री बैठाए ऐसे ऑटो आड़े-तिरछे कट मारते सरपट भागते नजर आ जायेंगे. ऐसे ओवर लोडेड ऑटो बिहार के पुलिस मुख्यालय, पटना पुलिस मुख्यालय, हाईकोर्ट और डीएम आवास होकर गुजरते हैं लेकिन किसकी हिम्मत है कि उन्हें टोके या रोके ? पुलिस और ऑटोवालों के बीच के रिश्ते पर फिर कभी चर्चा करूंगा.

यह एक बड़ा सवाल है कि सीट बेल्ट और हेलमेट पर सख्ती बरतनेवाली ट्रैफिक पुलिस ऑटोवालों के सामने भींगी बिल्ली क्यों बन जाती है? पटना जंक्शन गोलंबर पर ऑटोवालों का कब्जा है. जहां मन होता है वे ऑटो खड़ा कर देते हैं, जिधर से मन होता है उधर से ऑटो मोड़ लेते हैं. वहां ट्रैफिक पुलिस की बेचारगी देख कर ग्लानि होती है. उन पर दया भी आती है, क्योंकि शायद उन्हें वैसे ही निर्देश होते हैं.

पटना हाईकोर्ट से होकर ओवरलोडेड ऑटो गुजरते हैं. कभी न कभी न्यायाधीशों, वकीलों की नजर भी उनपर जरूर पड़ी होगी. कई महत्वहीन मामलों पर स्वतः संज्ञान लेने वाली अदालत आम आदमी की जिंदगी से जुड़े इस मसले पर भी संज्ञान तो ले ही सकती थी ?

अगर संबंधित एजेंसियां या न्यायपालिका इसमें रुचि लेती तो 7 बहुमूल्य ज़िंदगी बचाई जा सकती थी. आम आदमी की जिंदगी से जन प्रतिनिधियों की दिलचस्पी सिर्फ वोट तक ही रहती है. अभी चुनाव है तो वे चिलचिलाती धूप में द्वारे-द्वारे नाक रगड़ रहे हैं. वे इसमें रुचि लेंगे, यह सोचना भी मूढ़ता होगी.

सच पूछिए तो पटना में ऑटो वालों का आतंक है. हर चौक चौराहों पर वे सड़क छेके खड़े रहते हैं. इससे चारो तरफ ट्रैफिक जाम हो जाता है, लेकिन उन्हें इसकी परवाह नहीं. पुलिस वाले टोकते नहीं. आम आदमी बोलता है तो झगड़े पर उतारू हो जाते हैं.

अधिकांश ऑटो वालों को न बोलने का सलीका है, न बैठने का, न पहनने का. उसमें से कई की अपराधी गिरोहों से साठगांठ रहती है. वे यात्रियों को लूटने के लिए ऑटो चलाते हैं. यह बात पुलिस भी जानती है.

दूसरे प्रदेशों में ऑटो का किराया भले प्रशासन तय करता हो पटना या पूरे बिहार में ऑटोवाले खुद ही किराया तय कर लेते हैं. हकीमों को इससे मतलब नहीं रहता.

अतिक्रमण हटाओ अभियान में रेहड़-पटरी वालों, ठेले वालों का सामान जब्त करने और इनपर जुर्माना कर पुलिस और प्रशासन आम आदमी को राहत देता है. लेकिन ऑटोवालों को पकड़ने या उनपर जुर्माना करने में उनके हाथ-पैर थरथराने लगते हैं और मुंह सूखने लगता है. हर पटनावासी इसका साक्षी है, क्योंकि इसका खामियाजा वही भुगतता है.

16 अप्रैल को जिन सात लोगों की मौत हुई (उनमें दो मासूम बच्चे और उनकी मां भी थी, सिर्फ पिता बच गए) उनके खून का पाप सिर्फ उस ऑटो ड्राइवर पर ही नहीं है, उस पाप में आला अधिकारी से लेकर ट्रैफिक पुलिस तक शामिल हैं. पता नहीं इस पाप का बोझ लेकर वे कैसे सो पाते हैं? उनके घरों में भी बाल-बच्चे जरूर होंगे. हां याद आया मृतक 7 यात्रियों में एक महिला सब इंस्पेक्टर की बहन भी थी. जरा सोचिए उस बहन की हालत क्या हुई होगी?

और कितनी निरीह जिंदगियों का शव देखकर पटना का पुलिस प्रशासन जागेगा!

(वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से)