कामकाजी महिला एवं उसका हक
हमारे धर्म में कहा गया है ‘‘यत्र नार्यस्तु पुज्यंते, रमन्ते तत्र देवता’’ नारी में देवी का वास है, नारी देवी का रूप है इन कथनों ने नारी को समाज में सम्मानीय स्थान दिया है, इसमें कोई शंका नहीं, तथापि हमारा समाज पुरुष प्रधान रहा है इस अर्थ में कि शादी के बाद लड़की अपने घर-द्वार छोड़कर ससुराल में बसती है. अपने मां-बाप एवं परिवार को छोड़कर लड़के के परिवार को सींचती है. समाज के इस बनावट ने कई पीढ़ी को सभ्यता एवं संस्कार दिए जो विश्व में भी सराहा गया. नियम जब सही होते हैं, तभी समाज स्वस्थ होता है.
प्राकृतिक रूप से भी देखा गया है कि स्त्री एवं पुरुष में जो शारीरिक बनावट है उसके कारण संतान उत्पत्ति एवं पालन-पोषण की क्षमता में स्त्री का योगदान सर्वाधिक होता है. संभवतः इस हेतु नारी में सहनशक्ति पुरुषों की तुलना में अधिक देखी जाती है. कारण कि शारीरिक क्षमता कहीं न कहीं मानसिक क्षमता को भी प्रभावित करती ही हैं. महिलाओं को समाज द्वारा बनाए गए इस ढांचे में ढलने हेतु कई बुनियादी कार्य भी किए गए जिसने सदियों तक एक परंपरा का रूप बनाए रखा. यथा- महिलाओं के लिए शिक्षा का अनावश्यक होना एवं घरेलु कार्यो में दक्ष होने की अनिवार्यता. यही कारण है कि पुराने समय में केवल संभ्रांत एवं अभिजात्य वर्ग की उच्च कुलीन महिलाएं ही पढ़ाई-लिखाई कर सकती थीं. अन्य वर्गीय महिलाओं को इससे वंचित रखा जाता था कि वे पढ़-लिख कर सही-गलत समझने लगेंगी. अपने साथ भेद-भाव स्वीकार नहीं करेंगी एवं पुरुषों के समकक्ष अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ेंगी.
किंतु शनैः शनैः विचारों में बदलाव आया. बुद्धिजीवीयों ने पाया कि महिलाओं की शिक्षा से समाज में कुरीतियों का ह्रास संभव है. इस विचार ने महिलाओं की शिक्षा की खूब वकालत की और अब आलम यह है कि यदि कोई लड़की पढ़ी-लिखी नहीं होती तो उसकी शादी होने में भी मुश्किलें आती हैं. वर पक्ष कन्या के रूप से ज्यादा उसकी शिक्षा को महत्व देते हैं. इस वजह से आज हमारा समाज कुप्रथा मुक्त होने में काफी सफल हो पाया है. पीढ़ी को सभ्यता एवं संस्कार दिए जो विश्व में भी सराहा गया. नियम जब सही होते हैं, तभी समाज स्वस्थ होता है.
वर्तमान परिपे्रक्ष्य में महिलाएं केवल शिक्षित नहीं होती; अधिकांश महिलाएं कामकाजी होने लगी हैं. किंतु हिंदु धर्म का जो नियम है कि ‘‘एक बार बेटी दान कर दी गई तो उस पर उसके मां-बाप का कोई हक नहीं’’ ने इन महिलाओं की जिंदगी को अभिशापित कर रखा है. इन महिलाओं को न तो मायके का सुख नसीब होता है और नहीं ससुराल का. आप देखिए कि एक ही कोख से बेटे एवं बेटियों को जनने वाली मां जो सदैव अपने बच्चों को समान स्नेह देती हैं; शादी के बाद बेटियों के प्रति अधिक जबावदेह हो जाती हैं. कारण यह कि बेटियों को ससुराल में होने वाले भेदभावों को सहने में मुश्किलें न हो एवं साथ ही उनके पतियों को भी अधिक मान देती हैं ताकि उनके घरेलु बेटियों को ससुराली जिंदगी जीने में सहयोग कर सकें.
इसके उलट कामकाजी महिलाओं को कमासूत बेटों की तरह न तो मायके में घरेलु बेटियों को मिलनेवाला वह निःस्वार्थ प्रेम मिल पाता है और उनके पति तो दुश्मन ही बन जाते हैं. ससुराल में लड़की की आत्मनिर्भर होने से केवल उसकी अच्छे घर में शादी एवं उसके बच्चे की अच्छी परवरिश ही संभव है – ऐसे तर्क दिए जाते हैं एवं बाकि सारे कायदे-कानून एक घरेलु महिला वाले ही लागु किए जाते हैं. यद्यपि महिला कामकाजी हो अथवा घरेलु वह स्वयं में ही अपने मां-बाप की एक संचित निधि होती है पर हमारे समाज ने इसे सदैव हाशिये पर रखा है और बेटियों को उनके ससुराल में हमेशा एक भर्ता के रूप में देखा गया है जो ससुराल को भरती रहे. अतः ससुराल में कामकाजी बहु से भी वे सारी आकांक्षाएं होती हैं कि उनके बेटे एवं बहु को उनकी बहु के मायके से सम्मान एवं सामान मिलता रहे. इधर जब लड़की के मां-बाप की उम्मीद टूट जाती है और वे अपने बेटी एवं दामाद को सामान एवं सम्मान नहीं दे पाते तो इस कारण भी दुःख लड़की को ही उठाना पड़ता है. उसकी स्थिति को उस समय समझनेवाला उसका जीवनसाथी भी नहीं होता. उसे भी उस समय हिंदु धर्म की वही परंपरा अधिक दिखाई दे रही होती है जिसमें एक बेटी को बसाने के लिए उसके मां-बाप अपना जिंदगी त्याग देते हैं.
पुरुष प्रधान समाज भी बस एक हितसाधक समाज की रूप-रेखा होती है जिसका लोग बड़ी सावधानी से अपने हित को देखते हुए इस्तेमाल करते हैं. जैसे जब ससुराल को संभालने की बारी होती है तो समाज पुरुषसत्तात्मक हो जाता है एवं जब बारी महिला के मातृत्वकाल की आती है तो समाज मातृसत्तात्मक हो जाता है. मातृत्वकाल के समय महिला को नन्हे शिशु के साथ स्वयं के देखभाल की जरूरत पड़ती है. उस समय ससुरालवाले अपनी बहु को बिना काम करवाए सहारा देने में समर्थ नहीं हो पाते जबकि मायके में यह सब आसानी से संभव हो जाता है और यही परिपाटी चल रही है. अब लगभग प्रत्येक महिला के मातृत्वकाल में देख-रेख उनके मायकेवालों द्वारा ही संभव हो पाता है. किंतु कामकाजी महिला के लिए खासकर वे महिला जो कामकाजी होने के बावजूद नियमों में बंधने हेतु बाध्य है के लिए ये सबकुछ संभव नहीं हो पाता. मायके वाले टूटे मन से उनकी देख-रेख में आना-कानी करते हैं और ससुरालवाले मां-बेटी की चल पड़ी इस परिपाटी का डंका बजाकर अपनी इस जिम्मदारी की फेंका-फेंकी करते हैं. और इस स्थिति में सहना सबकुछ महिला को ही पड़ता है.
आखिर क्या होता था पुरुषों में, कोई सुरखाव के पंख थोड़े लगे होते थे. उनकी कमाई ही थी जो उन्हें परिवार में बिना घरेलु काम किए भी प्राथमिकता एवं वरीयता प्रदान करती थी. जबकि महिलाओं को उनकी ही नहीं वरन् उनके परिवार को भी पौधो की तरह सींचना होता था. जिस हेतु ये घरेलु महिलाएं न जाने कितने यातनाएं, भेद-भाव एवं दुव्र्यवहार सहती थीं. परिवार में लाख समर्पित होने के बावजूद उनकी ये दयनीय स्थिति ने ही बुद्धिजीवियों को महिलाओं को पुरुषों की भांति ही शिक्षा एवं रोजगार प्राप्त करने के अवसर की वकालत करने हेतु प्रेरित किया और आज जब उनकी सोच एवं कल्पना के बीज अंकुरित होने लगे तो ये पुराने नियमों के वजह से बात वही हो गई ‘‘ढाक के तीन पात’’. बल्कि उससे भी बद्तर. ये पारंपरिक सोच-विचार एवं आचार-व्यवहार महिलाओं को कभी उनका हक एवं सुख प्राप्त करने नहीं देगी.
बेटी को पढ़ा-लिखा कर उसे उसके पैर पर खड़ा करने में उनके मां-बाप की भूमिका क्या बेटों से कम होती है. उल्टे उन्हें तो अधिक जिम्मदारी होती है कि कहीं उनकी बेटी कलंकित न हो जाए. रहा पढ़ाई में खर्च का सवाल तो पैसा कभी भी किसी नियम, रिती-रिवाज़, धर्म एवं परंपरा का पैमाना नहीं हो सकता. किसी के बेटे की पढ़ाई का खर्चा तो सरकार ही उठा लेती है तो क्या उनके मां-बाप का बेटे की कमाई पर हक सरकार ले लेती है. यह भी तर्क दिया जाता है कि बेटे को तो उसके मां-बाप की संपत्ति प्राप्त होती है तो क्या जिनके संपत्ति नहीं होती उनके मां-बाप इस अधिकार से वंचित रह जाते हैं. क्या इकलौती घरेलु लड़की से शादी करने पर उसके मां-बाप की संपत्ति लड़के को नहीं मिलती? ये सब जबरदस्ती जीतने की बात है.
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कहते हैं जब तक पूजा में पैसा नहीं लगाया तब तक पूजा सार्थक नहीं होती. ये तर्क वैसे लोगों के लिए होते हैं जिनका मन पैसे में ही डुबा रहता है. बिन पैसे लगाए उन्हें यह एहसास ही नहीं होता कि उन्होंने भगवान को मन से पूजा वरना भगवान तो बड़े-बड़े यज्ञ एवं पूजन से ज्यादा उस भक्त को प्रिय होते हैं जिसने उन्हें केवल मन से याद किया हो. कई लोग तो भीख मांग कर छठ करते हैं तो क्या छठी मैया को उनकी पूजा रास नहीं आती. अतः पैसा किसी नियम का मापक नहीं हो सकता. रूपया-पैसा तो जरूरत पुरे करने का एक साधन है जो समाज को एक आर्थिक रूप देती है. एक ऐसा समाज जिसमें व्यक्ति को उसके कार्य के अनुरुप मेहनताना मिल सके.
किसी व्यक्ति का उसके कमाई पर प्रथम हक प्रदान करना भी एक स्वस्थ आर्थिक समाज की ही जिम्मेवारी होती है. इस नाते यदि कोई परिवार पुरुष की कमाई पर निर्भर है तो उसकी कमाई पर उसके मां-बाप का पहला हक होना स्वभाविक है. परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अपने सास-ससुर की देखभाल करते हुए उनकी स्त्री अपने मां-बाप की बीमारी का खर्च उठा ले तो उन्हें पाप लग जाएगा. अतः पैसा नियमों का पैमाना हो ही नहीं सकता. पाप एवं पुण्य की परिभाषा में रूपये-पैसे की कोई भूमिका नहीं होती. रामायण में गुरु वशिष्ठजी ने भी श्रीरामजी को यही बताया था- पुण्य प्रेम एवं दया में है तथा पाप घृणा एवं किसी को सताने में है. अतः जबतक महिला अपने सास-ससुर को प्रेम नहीं देती तबतक वह पुण्य नहीं चाहे लाख उनके बेटे की एवं /अथवा अपनी कमाई उनपर खर्च करे. ठीक इसी प्रकार उसके कोई भी कृत्य पापतुल्य नहीं कहे जा सकते जबतक कि वह अपने ससुरालवालों को सता न रही हो. मां-बाप की सेवा करने से पुण्य ही होता है वो चाहे अपने मां-बाप की करें या दूसरों की. कई लोग तो परोपकार के लिए ही जीते हैं. सदैव वृद्धजनों की सेवा में लगे रहते हैं. पाप तो तब होता है जब अपने मां-बाप की सेवा छोड़ हम दूसरों ही सेवा में लगे रहते हैं अथवा सास-ससुर और मां-बाप में भेद-भाव करते हैं.
नारी, नारी की दुश्मन नहीं होती
यद्यपि समाज में स्त्री कामकाजी हो या घरेलु वह परिवार जोड़ने का काम करती है जिससे समाज में कुपमंडुकता का ह्रास होता है. तथापि समाज में व्याप्त भेद-भाव एवं लोभ नारी की जिंदगी को सदियों से बर्बाद करता आ रहा है. पहले कहा जाता था कि नारी ही नारी की दुश्मन होती है. किंतु शिक्षा ने यह साबित कर दिया कि नारी, नारी की दुश्मन नहीं होती. समाज में रूढ़ीवादिता, बदलते समाज के स्वरूप में पुराने नियमों का प्रचलन नारी का दुश्मन होता है. क्या करना है एवं क्या नहीं करना है आज की विवेकशील नारी को पता होता है, फिर भी ताने सुनने को मिलते हैं कि ज्यादा पढ़ी-लिखी हैं. यदि सिर्फ अपने ससुराल के बारे में सोचो तब ठीक है किंतु जरा सा समाज या प्रकृति के बारे में सोचो जो अंततोगत्वा उनके व्यक्तिगत परिवार को ही पल्लवित करेगा तो ससुराल वाले अपने किए पर पछतावा करने लगते हैं कि क्यों ऐसी कमाउ लड़की को अपने घर लाए एवं यदि उनमें मायके की चिंता दिखी तो उन्हें सदमा ही लग जाता है कि अब सारी कमाई उठा कर उधर उड़ेल देगी.
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लोगों को शायद ऐसा लगता होगा कि पूरे घर के रख-रखाव, खान-पान एवं रहन-सहन की जिम्मदारी महिला ही देखती है. ऐसे में यदि उन्हें भी अपने मायकेवाले को देखने की अनुमति मिल जाएगी तो वे उधर ही रमी रहेंगी और अपने सास-ससुर की सेवा-सुश्रुषा सही ढंग से नहीं कर पाएंगी. किंतु यह सोच निराधार है. महिला अपने मायके की चिंता छोड़ अपने ससुराल के लिए ही समर्पित रहेगी, यह सतयुग की बाते थीं. जहां मानव-मानव में प्यार और समर्पण की अनुभूति परस्पर होती थी. वर्तमान समय में आधुनिक जीवन शैली ने लोगों की चेतनता एवं मन को इस प्रकार जकड़ दिया है कि न आपका कृत्य दूसरों को दिखेगा और न दूसरों का कृत्य आपको. सब दूसरों में कमियां और स्वयं में खुबियां ढुंढने में ही लगे रहते हैं. इसलिए बहु यदि सास को तरहती पर भी रखती है तो उन्हें दिखाई ही नहीं देता और ऐसे में बात यदि कामकाजी महिला की हो जिसे तन से ज्यादा धन द्वारा ही परिवार का दिल जीतने की सामथ्र्यता होती है, वे टूट-सी जाती हैं. कारण कि एक तो उनपर अपने मायके पर खर्च करने की पाबंदी होती है और जब वे अपने मन को मारकर ससुराल पर ही अपना सर्वस्व न्यौछावर करना चाहती है तब ससुरालवालों द्वारा उनके बहु के प्यार में अनुभूति न देखने की प्रवृत्ति कामकाजी बहु के लिए काफी असहनीय हो जाती है.
एक विवेकशील महिला को ससुराल एवं मायके को जोड़कर रखने का ज्ञान होता है. कहां तन से सेवा करना है और कहां धन से वे सब जानती हैं किंतु समाज में पैसे को ही सर्वस्व समझने की सोच ने मनुष्य को लालची बना कर रख दिया है. इस लालच में वे इतने अंधे हो गए हैं कि वे यह भी नहीं समझते कि जिस पैसे को कमाने की काबिलियत ने ही पुरुषों को समाज में यह सुविधा दी है कि मायकेवाले अपनी बेटी के धन के उपभोग को पापतुल्य मानते हैं. आज वही काबिलियत महिलाओं में होने के बावजूद उन्हें इस सुविधा से महरुम करती है जो सर्वथा अनुचित है.
बेटी धन से तात्पर्य ससुराली धन से होता है जो प्राचीन समय की बाते होती थीं. उस जमाने में बेटियां कामकाजी नहीं हुआ करती थीं. वैसे में अपने ससुराल की कमाई अपने मायके पर लुटाना वाकई में गलत माना जाएगा. किंतु जिस मां-बाप ने अपनी बेटी को इस लायक बनाया कि वह कमा सके और बेटी ने भी अपने मां-बाप को एक बेटे की भांति सुख-सुविधा देने हेतु जी-तोड़ मेहनत कर नौकरी हासिल की आज इसी घीसे-पीटे नियम की वजह से अपना हक पाने में असक्षम हो गए हैं जो काफी चिंतनीय है. यह हाल जब लड़के के साथ होता है तब लड़के की मां अपने त्याग एवं बलिदान का खुब रोना रोती है, हाय-श्राप देती है और यह कहकर संतोष करती है कि जो जैसा करेगा वैसा पाएगा. किंतु यही हाल जब उनकी कामकाजी बहु का होता है तब वे इन पुराने नियमों की पड़ताल करती हैं और उसका हवाला देती हैं. तब उन्हें अपने कर्मों की चिंता नहीं होती. इतने पर भी इन कामकाजी महिलाओं को अपने सास के दर्द भरे तपस्वी जिंदगी से दर्द जगता है. वे चाहती हैं कि उन्हें भी वह सारे सुख दे सकें जिनके लिए वे संघर्षरत रहीं कारण कि लगभग हर महिला के शादी-शुदा जिंदगी की एक संघर्षमयी एवं दुखभरी आपबीती जरूर होती हैं किंतु पुराने घीसे -पीटे नियमों की जबरन थोपा-थोपी में सास-बहु की तकरार की कहानी कभी खत्म हो ही नहीं पाती. गाय का सींग बैल में बैल का सींग गाय में करते-करते आधी जिंदगी पार हो चुकी होती है और तब तक बच्चों के एक अशांत परिवेश में पोषित मन-मष्तिस्क का विकास हो चुका होता है.
यदि कोई कामकाजी महिला इन नियमों को अनदेखा भी करना चाहे तो ससुरालवाले अपने-अपने तरीके से खीज निकालने की कोशिश करते हैं. उनकी अलग कहानी होती है. सास-ससुर को लगता है कि हमने घरेलु बहु का सुख त्यागा. यह सोच उन्हें बहु के सुकर्मों पर पर्दा डालने हेतु पर्याप्त होती है. बहु की अपनी क्षमता एवं सामथ्र्य से ज्यादा सेवा भी उन्हें कम लगती है. ठीक इसी प्रकार परिवार के अन्य सदस्यों की भी होती है. पति को भी मायकेवालों द्वारा इज्जत मान मर्यादा में कमी ही दिखाई देती रहती है जिसकी प्रतिक्रिया महिला को ही झेलनी पड़ती है.
इधर मायकेवाले भी अपने समधाना रिश्ते में अपनी कामकाजी बेटी गंवाने के दुःख का छौंका लगाते रहते हैं. जो इज्जत वे उस घरेलु बेटी के ससुराल को इस डर से देते हैं कि कहीं उनकी बेटी को बसने में कठिनाई न हो, वो कामकाजी बेटी के ससुराल को इसलिए नहीं दी जाती कि कुछ भी हो उनकी बेटी तो दूधारू गाय है और उसे थोड़े ही कुछ होने देंगे. अतः निश्चिंत होकर वे भी सो जाते हैं. बेटी को उसके हाल पर छोड़कर और वे कर भी क्या सकते हैं. बेटी को इसीलिए तो इस लायक बनाया कि उन्हें ससुराल में डटकर रहने की हिम्मत मिल सके.
ऐसा नहीं है कि इनकी व्यथा को इनके मायकेवाले नहीं समझते. इनके ससुरालवालों को भी यदा-कदा इनपर तरस आता है पर जहां मायकवाले लाचार होते हैं वहीं ससुरालवाले नियमों से स्वयं को बांधे रखते हैं ताकि रुपया इधर से उधर न खिसक सके. समाजवाले इन्हें बंधनमुक्त होने की सलाह देते हैं. मैं पूछती हूं कि क्या यही समस्या का समाधान है. शादी करो और फिर शादी तोड़ो. तोड़ने की जरूरत पुराने नियमों की है सात फेरो की नहीं. यहां तक कहा जाता है कि जब मायके को ही देखना था तो शादी नहीं करती ; किसी की जिंदगी बर्बाद क्यों की? एक पुरुष को शादी के साथ अपनी कमाई पर पुरा हक एक साथ संभव हो पाता है जबकि एक महिला के लिए किसी एक को चुनने की नसीहत दी जाती है जो एक अस्वस्थ समाज का द्योतक है.
हर महिला बड़े अरमान से अपनी शादी के सपने संजोती है. शादी के बाद अपने गृहस्थ जीवन को आनंददायी रखने हेतु अपने पैरो पर खड़ी होती है. किंतु शादी के बाद आत्मनिर्भर होने के बावजूद उसकी जिंदगी नरक से भी बद्तर हो जाएगी ये उसने कभी न सोचा होगा. इससे अच्छी तो उस महिला की स्थिति होती है जो आत्मनिर्भर भले ही न पर आत्मनिर्णय लेने की अधिकारी होती हैं. रुपया-पैसा तो बस आपके सपने को साकार करने का माध्यम होता है किंतु सपने देखने के लिए भी सोच में डूबे रहना उस घुटनभरी जिंदगी सी है जिसमें महिला एक जीती जागती लाश जैसी होती है.
जब नियम उपयुक्त होते हैं तो ऐसे दर्द का हमदर्द कोई भी बन सकता है. किंतु नियम में रूढ़ीवादिता होने से यह भारतीय कामकाजी महिला को मानसिक रूप से कमजोर एवं असहाय बनाता है जिसका असर न केवल उसके स्वास्थ्य पर पड़ता है वरन् उनके बच्चों के विकास में भी बाधा डालता है. एक खुशहाल मां ही अपने बच्चों को खुशनुमा परवरिश दे सकती है जिसमें उसके बच्चे का सर्वांगीण विकास होता है और ऐसे बच्चे ही स्वस्थ समाज की नींव रख पाते हैं. कई बार ये महिलाएं अपनी आयु का एक बड़ा हिस्सा यूंही संघर्ष में यह सोचकर जी लेती हैं कि एक-न-एक दिन उनका भी आएगा. किंतु तबतक बहुत देर हो चुकी होती है. और यदि उनका दिन आ भी गया तो उनमें निर्णायक क्षमता का ह्रास हो चुका होता है. लंबे अरसे से दर्द में जीने की उन्हें आदत लग जाती है और यदि वे इसमें से निकलकर एक खुशनुमा जिंदगी जीना भी चाहती हैं तो उन्हें यह सब अटपटा लगता है. उसकी मानसिक स्थिति ठीक उस पागल के जैसी होती है जो ठीक हो गया हो किंतु महसुस न कर पा रहा हो. ऐसी मानसिकता वाली महिलाएं परिवार को भी सदैव दर्द में जीने हेतु, संघर्ष करने हेतु बाधित करती हैं, उन्हें खुश नहीं होने देतीं.
यदि महिला के आत्मनिर्भरता से उसके केवल खाने-पीने एवं पहनने-ओढ़ने तक की आजादी का ही अर्थ लगाया जाता है तो इस आत्मनिर्भर होने की परिपाटी को ही खत्म कर देना चाहिए. जब वे अपने पावर ऑफ अटर्नी का इस्तेमाल ही नहीं कर सकतीं तो क्या फायदा ऐसी कमाई का. नहीं कमाते हुए ससुराली धन पर ऐश करके एक नौकरानी बनकर जिंदगी काटना कमाते हुए भी अपने पैसे का सुखभोग न कर पाने की स्थिति से कहीं अच्छा है और एक-न-एक दिन जरूर आता है जब वे नौकरानी से महारानी बन जाती हैं जबकि हम कामकाजी महिलाएं उस स्थिति में पागल एवं कुंठित हो जाती हैं कारण कि नीचे से उपर उठना सफलता है. किंतु सफलता को पाकर भी समय रहते सफलता का आनंद न उठा पाना असफलता से कहीं नीचे है. सदियों से छीन-झपट कर अपना अधिकार लेते रहने की प्रवृत्ति वाली ये घरेलु महिलाएं सास के रूप में एक खलनायिका की भांति ही होती हैं जो यह नहीं समझतीं कि यदि उनकी बहु को छीनना और झपटना ही सीखना होता तो वे नौकरी ही क्यों करतीं. ये कम पढ़ी-लिखी या अपढ़ महिलाओं में पारिवारिक बुद्धि की भरमार होती हैं जिनका वे खुब फायदा उठाती हैं. वही पढ़ी-लिखी महिला जरा-सा अपने विवके का इस्तेमाल करती हैं कि उल्टे ये इन्हें शातिर, चतुर और होशियार होने का मेडल व प्रशस्ति पत्र थमा देती हैं. ऐसा लगता है कि धरती पर महानता दिखाने के लिए हम महिलाएं ही जन्म ली हैं कि अपने एहसास को पल-पल मारते रहें, समझाते रहें और तन-मन-धन लड़के के परिवार पर लुटाते रहें. इसे अन्याय नहीं तो और क्या कहेंगे. हम कामकाजी महिलाओं के साथ यह दोहरी नीति कतई बर्दाश्त नहीं की जा सकती.
इस व्यथा को एक कामकाजी महिला की व्यथा न समझे. अधिकांश भारतीय कामकाजी महिलाओं की व्यथा लगभग मिलती-जुलती ऐसी ही होती है जिससे व पीड़ित होती रहती हैं. बदलती समय की धारा में नियमों का न बदलना समाज को सदैव डसता रहेगा. अतः इस ओर सोच बदलने की जरूरत है. जिस प्रकार एक कामकाजी बेटे को अपने मां-बाप एवं परिवार के बारे में सोचने का उनपर पैसे खर्च करने का पूरा हक होता है ठीक उसी प्रकार कामकाजी महिला को भी यह अधिकार मिलना चाहिए. यदि महिला केवल अपने मायकेवालों के लिए संवेदनशील होती हैं तो इसे नए नियम की अनावश्यकता नहीं समझनी चाहिए कारण कि ऐसा तो लगभग हर घरेलु महिला भी करती हैं.
जब तक नियम नहीं बदलेंगे, कुछ संभव नहीं हो सकता. हिंदु धर्म में तो यह नियम है कि महिला को घर की मर्यादा हेतु चाहरदिवारी के अंदर रहना चाहिए एवं पुरुष को ही घर की आजीविका का भार सौंपा जाना चाहिए. वर पक्ष वधु की नौकरी और उससे होनेवाले आमदनी के लोभ में जब इस नियम को बदल सकते हैं तो उन्हें बेटी दान के बाद बेटी पर कोई अधिकार नहीं जैसे नियमों को भी बदल देना चाहिए.
नियम तो यह भी है कि एक बार जब बेटी की डोली घर से निकलती है तो फिर ससुराल से उसकी अर्थी ही निकलेगी. बेटी लाख मुसीबत में हो मायकेवाले का उसपर कोई हक नहीं. वधुपक्ष जब इस नियम को दरकिनार कर अपने मरते हुए बेटी को ससुराल के बंधन से छुड़ा लाते हैं तो बेटी अपने मां-बाप एवं परिवार को उनके हाल पर कैसे छोड़ सकती है.
‘‘नियम देश एवं काल के अनुसार बदलते रहते हैं’’ यह हिंदु धर्म का ही हवाला है तो आज हमारा समाज इससे मुंह क्यों फेरे हुए है. दूसरों को सब सलाह देंगे कि कान पर पर्दा डालो और चुप-चाप अपने मायकेवालों को सहयोग करो, किंतु स्वयं की बारी आती है तो पैसों में प्राण अटक जाते हैं. अतः अब आवाज़ और आगाज़ की जरूरत है. जबतक इस ओर प्रयास नहीं करेंगे, हमारा समाज नहीं सुधर सकता. समाज का पुरुष-सत्तात्मक अथवा मातृसत्तात्मक होने से ज्यादा मानवतासत्तात्मक होने की जरूरत है. ऐसा समाज ही नारी को उसके सहनशीलता एवं उसकी महानता को सही प्रशस्ति देने में सक्षम हो सकेगा एवं उसके साथ न्याय कर सकेगा.
(लेखिका – गुंजा कुमारी, आयकर निरीक्षक. कार्यालय- प्र. आयकर आयुक्त, केन्द्रीय, पटना)
ऊपर लिखे विचार लेखिका के अपने विचार हैं.