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माकपा को घुटने पर लाने वाली भाजपा के चाल, चेहरे और चरित्र पर सवाल

कोलकाता / पटना (TBN – वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा की रिपोर्ट)| राजनीतिक हालात और खुफिया रिपोर्ट के आधार पर दूसरा कश्मीर बन रहे (Kashmir) पश्चिम बंगाल (West Bengal) को साधने की हर मुमकिन कोशिश में भाजपा (BJP) रहती है. पिछले साल विधान सभा चुनावों में अपने दम पर बढ़िया प्रदर्शन कर वह मुख्य विपक्षी दल बन गई है. पर मक़सद पूरा करने की गरज से उसने जो कदम उठाया है, उपर सवाल खड़े हो रहे हैं.

रोहिंग्याओं (Rohingyas) और बंगलादेशी घुसपैठियों (Bangladeshi Infiltrators) और ममता बनर्जी की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति (Mamta Banerjee’s policy of Muslim appeasement) की वजह से बंगाल में जनसांख्यिकीय बदलाव (demographic change) हुआ है. यह देश की एकता और अखण्डता के लिए फिलहाल चुनौती भले न हो, ममता की सियासत ने कांग्रेस (Congress), माकपा (CPI) और भाजपा को नाको चने चबाने के लिए मजबूर कर दिया है.

स्थिति यह है कि टीएमसी (TMC) की विरोधियों के प्रति आक्रामक राजनीति से विधानसभा से कांग्रेस गायब हो चुकी है और 34 सालों तक वहां हुकूमत करने वाली माकपा भी अपने वजूद के लिए जूझ रही है.

वैसे में भाजपा ने 2019 में लोकसभा चुनावों में और फिर 2021में विधानसभा चुनावों में मजबूती से अपनी मौजूदगी का एहसास कराया. पर सत्ता की चाहत कुछ और कहानी बयां कर रही है.

दरअसल, 62 सीटों वाले को-औपरेटिव चुनावों में किये गये प्रयोग ने ममता बनर्जी के होश उड़ा दिए हैं. इन चुनावों में भाजपा और माकपा ने साथ लड़कर टीएमसी को शुन्य पर लाकर छोड़ दिया. इस अविश्वसनीय भरे प्रयोग की सफलता से माकपा गदगद है और पश्चिम बंगाल की राजनीति में अपनी रि-इंट्री देख रही है. अब यही प्रयोग होने वाले पंचायत चुनावों में किया जायेगा.यानी भाजपा और माकपा साथ मिलकर पंचायत चुनाव लड़ेंगे.

कयास लगाए जा रहे हैं कि जल्द ही बंगाल में होने वाले पंचायत चुनावों में भाजपा-माकपा गठजोड़ को फिर कामयाबी मिलेगी और टीएमसी को पंचायत चुनावों में मुंह की खानी पड़ेगी. इसका नतीजा यह होगा कि 2024 में लोकसभा चुनावों में दोनों दल साथ मिलकर प्रत्याशी खड़े करेंगे ताकि टीएमसी को पूरी तरह से शिकस्त दी जा सके.

लेकिन माकपा हो या भाजपा, दोनों दलों का मंसूबा इतने से पूरा नहीं होता. 2026 के विधानसभा चुनावों में टीएमसी को सत्ता से बाहर कर देना दोनों का लक्ष्य है. को-औपरेटिव चुनावों की सफलता से आगे बढ़कर अंतिम तौर पर टीएमसी को सत्ता से बाहर करने का रास्ता भाजपा और माकपा दोनों को मिल गया है.

लेकिन इस राजनीति के दूसरे पहलू पर फिलहाल भाजपा खामोश है जिससे उसके चाल, चेहरा और चरित्र पर सवाल उठ रहे हैं. बात चाहे हिन्दुत्व की हो या राष्ट्रवाद की, भाजपा के इस खांचे में कांग्रेस, माकपा या टीएमसी तीनो अनफिट हैं. अपनी नीतियों और टीएमसी की आक्रामक राजनीति का खामियाजा कांग्रेस बंगाल में भुगत रही है. उसे हाशिए पर पहुंचा दिया गया है. पर टीएमसी की धुर विरोधी भाजपा और माकपा का साथ आना बंगाल की सत्ता पर कब्जा जमाने तक ही सीमित नहीं है.

भारत की संस्कृति, संस्कार, विरासत जैसे पक्षों के प्रति वामपंथियों की भूमिका को महज एक राज्य में सत्ता प्राप्त करने के लिए भाजपा भूल जायेगी, इसकी उम्मीद तो देश के बहुसंख्यक समाज ने नहीं की होगी ! वामपंथियों ने शिक्षण और साहित्य के जरिए देश के दर्प का जितना मर्दन किया, उसे जनमानस कैसे भूल सकता है ? आज भी लिबरल गैंग वामपंथी विचारधारा के मंसूबे पूरे करने में लगा हुआ है. इस आधार पर महज अपने राजनीतिक शत्रु को निबटाने के लिए भाजपा पश्चिम बंगाल में माकपा को अपना पार्टनर बना सकती है, यह किसी ने नहीं सोचा होगा.

लेकिन जब बात निकली है तब दूर तलक भी जायेगी ही. सेक्यूलरिज्म की झण्डाबरदार माकपा और राष्ट्रवाद की प्रबल भावना से ओतप्रोत भाजपा का पश्चिम बंगाल की राजनीति में यह लचीलापन क्या रंग दिखाता है, इसे देखना होगा.