सजा पाए नेताओं की राजनीतिक सक्रियता पर अंकुश जरुरी
पटना (TBN – वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा की खास रिपोर्ट)| देश में शासन पद्धति के दुष्परिणाम का सबसे व्यापक प्रभाव हमारी न्याय प्रणाली पर पड़ा है. अन्तर्विरोध यह है कि विधि-सम्मत शासन व्यवस्था की स्थापना न्याय प्रणाली से ही प्रतिविम्बित होती है. विधायिका और कार्यपालिका ने यथासम्भव अपने हितों के पोषण में न्याय प्रणाली को अपने अनुरुप ढालने की कोशिश की, पर दबाव में रहते हुए भी न्याय प्रणाली ने विधि का शासन स्थापित रहने में विधायिका और कार्यपालिका को उसकी सीमाएं बतायी है. हालांकि इसका मतलब यही है कि कमियां अभी भी हैं, लेकिन एक अच्छा और सुखद संकेत जरुर मिला है.
जो शक्तियां भारत को इंडिया के रुप में देखती आई हैं, उनके लिए यह संकेत सबसे पहले बुरा है. औरों के लिए यह एक मर्ज है जिसका उपचार जरुरी है. दिक्कत निश्चिंत रहने के भाव में खलल पैदा होने की है. जिसे बाजाप्ता ठोक-ठाक कर आगे बढा़या जाता रहा, उस पर ब्रेक लगने की आशंका के फलस्वरुप हो सकने वाली प्रतिक्रिया को जितनी मजबूती से निपटा जा सकता हो, वही समय की मांग है और उसी दिशा में कदम आगे बढा़ए जा रहे हैं.
एमिकस क्यूरी की रिपोर्ट
आपराधिक मामलों के आरोपी सांसदों और विधायकों के मामले में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया (Supreme Court’s Senior Advocate Vijay Hansaria) ने अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंप दी है. सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने उन्हें बतौर न्याय मित्र (amicus curiae) नियुक्त किया है. अपनी रिपोर्ट में हंसारिया ने कोर्ट से दोषी करार दिए गए नेताओं पर चुनाव लड़ने का आजीवन प्रतिबंध लगाए जाने की अनुशंसा की है. अभी यह प्रतिबंध 6 वर्ष के लिए है जो सजा पूरी होने के बाद शुरु होता है.
देश के 763 सांसदों में से 306 यानि 40% और 4001 विधायकों में से 1777 यानि 44% नेताओं के खिलाफ आपराधिक मामले हैं. लेकिन विडम्बना देखिए. नेता कानून का मजाक कैसे बनाते हैं और हमारी न्याय प्रणाली भी कैसे चुपचाप देखती रहती है, इसकी मिसाल वह शख्स है जो सजायाफ्ता है, उसके चुनाव लड़ने और वोट देने का अधिकार निरस्त हो चुका है, जिसकी आपराधिक गतिविधियों के कारण उसका पूरा परिवार कानूनी जद में है, बावजूद इसके न सिर्फ वह अपनी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष है बल्कि आपराधिक मामले में आरोपित अपने बेटे को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने के लिए राजनीतिक रुप से सक्रिय भी है.
सभी आरोपी राजनीतिज्ञों पर भारी लालू
लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) इस लिहाज सभी आरोपी सांसदों और विधायकों पर अकेला भारी है, जहां तक सजा मिलने के बाद भी राजनीतिक रुप से सक्रिय रहने का सवाल है और जिसपर चर्चा तक नहीं होती. जबकि नैसर्गिक रुप से सजा का मतलब है कालकोठरी में सीमित हो जाना और बाहरी दुनिया से कोई मतलब नहीं रह जाना. लेकिन हमने ऐसा होता हुआ देखा है कि सजा की आधी अवधि पूरी हो जाने की दलील पर अपराधी नेता लालू यादव को जमानत मिल गई और अब वह देश का प्रधानमंत्री बदलने की राजनीतिक लडा़ई के मुख्य किरदारों में से एक है. यह उदाहरण है कानून की कमियों का जिससे समाज, सजा पाए नेता को अपराधी के रुप में न तो देख पाता है और न ही ऐसा नेता समाज को कुछ दे ही पाता है. कड़े कानून इसलिए भी जरुरी हैं.
नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने दो कार्यकाल में जितने भी सुधारात्मक उपाय किए, वह प्रशंसनीय हैं. इसमें वह सुधारात्मक कदम भी शामिल है जो क्रिमिनल ला से जुडा़ है और लाए गए तीनों बिल पर अभी संसदीय समिति विचार कर रही है. यह बात भी छनकर सामने आई है कि क्रिमिनल ला में जो बदलाव लाए गए हैं उनमें पुराने कानूनों के 83% प्रावधान शामिल हैं. यदि यह सच है तो कानून निर्माताओं को यह देखना चाहिए कि सिर्फ नाम और क्रम में बदलाव लाने से क्या हासिल होगा और वह मौजूदा वक्त के मुताबिक कितना कारगर होगा.
नरेन्द्र मोदी सरकार की यह कोशिश रही है कि सुधार ऐसे जरुर हों जो विकृतियों से अलग नजर आएं. हमारा देश बहुत बड़ा है और युवा है. कई हिस्से गरीबी और पिछडे़पन की गिरफ्त में भी हैं जहां के युवाओं को अपराधी किस्म के नेता बहका कर उनका राजनीतिक शोषण करते रहते हैं. इसका तो ज्वलंत उदाहरण स्वयं बिहार है जहां 32 वर्षों से कभी लालू तो कभी नीतीश और कभी-कभी दोनों साथ मिलकर बिहार की गरीबी दूर करने का खम ठोकते हैं.
अपराध के लिए पिछड़ापन जिम्मेदार हो सकता है पर यह सत्य है पिछडे़ इलाकों में अपराधी चरित्र के नेता फलते-फूलते हैं. इसलिए विजय हंसारिया की सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गई रिपोर्ट हालांकि सजा पाए नेताओं के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध से जुडा़ है, पर सुप्रीम कोर्ट अन्य पहलुओं पर भी विचार करे तो इसमें आश्चर्य कैसा !!