कोरोना के कारण फिर नहीं लगेगा पितृपक्ष मेला, नहीं होगा पिंडदान

गया (TBN – The Bihar Now डेस्क)| कोरोना महामारी के कारण इस वर्ष भी विश्व में मुक्तिधाम के रूप में विख्यात गया में पितृपक्ष मेला का आयोजन नहीं किया जाएगा. इसके चलते इस बार फिर यहाँ पिंडदान (pind daan) भी नहीं किया जा सकेगा. बता दें कि विश्वभर से लोग यहां अपने मृतक परिजनों/पूर्वजों के लिए पिंडदान करने आते हैं.
गया (Gaya) से 8 किलोमीटर की दूरी पर प्रेतशिला पर्वत (Pretshila Hill) है जहां लोग अपने पूर्वजों की आत्माओं को पिंडदान के द्वारा तृप्त करते हैं. हिन्दू धर्म (Hindu mythology) में मान्यता है कि मृत्यु के पश्चात आत्माएं प्रेत योनि में भटकती रहती हैं. इन भटकती आत्माओं की शांति व शुद्धि के लिए गया में पिंडदान किया जाता है. कहते हैं, पिंडदान करने से मृतक की आत्मा प्रेत योनि से मुक्त हो जन्म-मरण के फंदे से छूट जाती है.
अपने मृतक परिजनों/पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए यहां देश-विदेश से लाखों लोग पिंडदान करने आया करते हैं. गया का पितृपक्ष मेला इसी के लिए प्रसिद्ध है जो हर वर्ष अगस्त व सितंबर में लगता है. इस दौरान लोग प्रेतशिला पर्वत पर मृतक परिजनों/पूर्वजों की फ़ोटो छोड़ देते हैं और सत्तू उड़ाते हैं. पितृपक्ष के दौरान इस प्रेतशिला पर्वत पर इतना सत्तू उड़ाया जाता है कि पूरा पर्वत दूर से सफेद दिखता है. यहां के पंडा कहते हैं, ऐसा करने से अकाल मृत्यु की शिकार हुई प्रेत आत्माओं को प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है.
आखिर सत्तू क्यों उड़ाई जाती है?
गया के एक पंडा बताते हैं कि अकाल मृत्यु को प्राप्त होने वाले के यहां सूतक लगा रहता है. इस सूतक काल में हिन्दू मान्यता के अनुसार सत्तू का सेवन मना किया गया है. सत्तू का सेवन मृतक के पिंडदान करने के बाद ही किया जाता है. इस कारण लोग प्रेतशिला पर्वत पर सत्तू उड़ाते हैं और मृतक की आत्माओं से आशीर्वाद मांगते हैं. पितृपक्ष मेले के समय गया में खासी चहल-पहल होती है.
गया के इस प्रेतशिला पर्वत के ऊपर भगवान ब्रह्मा (Lord Brahma) का मंदिर है जहां उनके बाएं पैर का चरण चिह्न है. साथ ही वहीं उनके सिर के बाल के समान तीन लकीरें भी हैं.
इस मंदिर के ब्राह्मणों का कहना है कि प्रेतशिला पर्वत कभी सोने का हुआ करता था, लेकिन शाप की वजह से सब नष्ट हो गया. अब तीन लकीरें ही बची है. प्रेतशिला पर्वत पर बनी इन्हीं तीनों लकीरों को सत्व, रज और तम के तीन गुणों का प्रतीक मान कर लोगों द्वारा पिंडदान किया जाता है. इस दौरान यहां सत्तू भेंट करते का प्रचालन है. बाद में सत्तू को पर्वत पर उड़ाया जाता है.
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यहां के एक पंडा का कहना है कि 975 फीट की ऊंचाई वाले प्रेतशिला की खूबियों के बारे में वायु पुराण में बताया गया है. साथ ही गरुड़ पुराण और गया पुराण में भी इसका विस्तार से उल्लेख है. इसी पर्वत पर पिंडदान क्यों किया जाता है और इससे क्या होता है – इसका पूरा विवरण उपरोक्त वायु पुराण, गरुड़ पुराण और गया पुराण में है.
पंडा ने बताया कि यहां पिंडदान करने आनेवाले परिवार अपने पूर्वजों की प्रिय चीजें या उनकी फोटो यहां छोड़ जाते हैं. ये वस्तुएं इस पर्वत पर ही महीनों या फिर वर्षों पड़ी रहती हैं जो बाद में खुद खत्म हो जाती हैं.
प्रेतशिला पर्वत पर पिंडदान करने से पहले परिजनों को ब्रह्म तालाब (Bramh Talab) में बैठक कर इसकी पूरी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. फिर यहां से पिंड लेकर प्रेतशिला पर्वत पर बने मंदिर के प्रांगण में बैठकर पिंड स्थल पर रखना होता है.
गया में तर्पण व पिंडदान का महत्व
हिन्दू मान्यता के अनुसार, गयाधाम में पितृ देवता के रूप में स्वयं भगवान विष्णु निवास करते हैं. गया में श्राद्ध कर्म पूर्ण करने के बाद भगवान विष्णु के दर्शन करने से मनुष्य पितृ, माता और गुरु के ऋण से मुक्त हो जाता है. अतिप्राचीन विष्णुपद मंदिर में भगवान विष्णु के पदचिह्न आज भी साफ तौर देखे जा सकते हैं जो उनके मौजूदगी का सुखद अहसास देते हैं.
विश्वभर में पितरों का श्राद्ध और तर्पण करने के लिए गया से श्रेष्ठ कोई दूसरी जगह नहीं है. गया तीर्थ में पितरों का श्राद्ध और तर्पण किए जाने का उल्लेख पुराणों में भी मिलता है.
पुराणों के अनुसार, गयासुर नाम के एक असुर ने घोर तपस्या करके भगवान से आशीर्वाद प्राप्त कर लिया. भगवान से मिले आशीर्वाद का दुरुपयोग करके गयासुर ने देवताओं को ही परेशान करना शुरू कर दिया. गयासुर के अत्याचार से दुःखी देवताओं ने भगवान विष्णु की शरण ली और उनसे प्रार्थना की कि वह गयासुर से देवताओं की रक्षा करें. इस पर विष्णु ने अपनी गदा से गयासुर का वध कर दिया. बाद में भगवान विष्णु ने गयासुर के सिर पर एक पत्थर रख कर उसे मोक्ष प्रदान किया.
गया के प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर में वह पत्थर आज भी मौजूद है. भगवान विष्णु द्वारा गदा से गयासुर का वध किए जाने से उन्हें गया तीर्थ में मुक्तिदाता माना गया. कहा जाता है कि गया में यज्ञ, श्राद्ध, तर्पण और पिंड दान करने से मनुष्य को स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है.
वहीं गया शहर से करीब आठ किलामीटर की दूरी पर स्थित प्रेतशिला में पिंडदान करने से पितरों का उद्धार होता है. प्रेतशिला पर्वत का विशेष महत्व है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि इस पर्वत पर पिंडदान करने से अकाल मृत्यु को प्राप्त पूर्वजों तक पिंड सीधे पहुंच जाता है जिनसे उन्हें कष्टदायी योनियों से मुक्ति मिल जाती है.
शास्त्रों के अनुसार पिंडदान के लिए तीन जगहों को सबसे विशेष माना गया है. पहला है बद्रीनाथ जहां ब्रह्मकपाल सिद्ध क्षेत्र में पितृदोष मुक्ति के लिए तर्पण का विधान है. दूसरा है हरिद्वार, जहां नारायणी शिला के पास लोग पूर्वजों का पिंडदान करते हैं और तीसरा है गया. कहा जाता है पितृ पक्ष में फल्गु नदी के तट पर विष्णुपद मंदिर के करीब और अक्षयवट के पास पिंडदान करने से पूर्वजों को मुक्ति मिलती है.