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लालू के बाद बिहार को गर्त में ले जाने की कमी पूरी करेंगे नीतीश

पटना (वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा की खास रिपोर्ट)| सियासत में सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर समाजवादी लालू प्रसाद यादव का “जंगल राज” (“Jungle Raj” of Socialist Lalu Prasad Yadav) भारत ने देखा और दुनिया ने सुना. ये सियासत ही है कि लालू के सेकेण्ड वर्जन की सरकार बनाने की पहल दूसरे समाजवादी खुद नीतीश कुमार (Socialist Nitish Kumar) ने की. मंत्रीमण्डल गठन के बाद जंगल राज के सेकण्ड वर्जन को सामने लाने की मुकम्मल तैयारी है. यह देखना बाकी है कि नीतीश कुमार इस सेकेण्ड वर्जन को कितनी धार कैसे देते हैं.

एक उदाहरण सामने आया है. जिस राजद विधायक को संगीन मामले में अदालत में सरेण्डर करना था, उसी दिन यानी 16 अगस्त को विधायक कार्तिकेय सिंह ने कानून मंत्री पद की शपथ राजभवन में ली. दूसरे दिन यानी 17 अगस्त से कानून मंत्री फरार हैं और बर्खास्त करने का फैसला नीतीश कुमार ने अभी तक नहीं लिया है.

यह एक छोटी सी झलक है महागठबंधन की सरकार (grand coalition government) में बिहार के भविष्य की, जिसकी पतवार है तो नीतीश कुमार के हाथ में लेकिन सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते सरकार में शामिल राजद हवा का रुख तय करेगा. नीतीश कुमार के जरिए परोक्ष रूप से तेजस्वी यादव अपने पिता लालू के अधूरे सपनों को साकार करेंगे.

वैसे भी मंत्रीमण्डल का गठन का सोशल इंजीनियरिंग के आधार पर हुआ है जिसमें यादव और मुसलमानों की संख्या सबसे ज्यादा है. राजद इस मामले में पहले नम्बर पर है. अपने वोट बेस को उसने मजबूती दी है.

अभी जुम्मा-जुम्मा मंत्रीमण्डल ने अपना काम नियमित तरीके से शुरु भी नहीं किया है और सूबे के विभिन्न इलाकों से भय पैदा करने वाली घटनाएं एवं जानकारियां आने लगी हैं. खासकर राजद कार्यकर्ताओं की सक्रियता अचानक से टाप गियर में आ गई है.

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सूबे का कानून मंत्री फरार है. तब सरकार और अदालत की भूमिका पर सबों की नजर टिकेगी और सम्भव है एक कमजोर सरकार की वजह से अदालत को बिहार में फिर से सक्रीय होना पड़े. लालू का जंगल राज इसकी गवाही देता है.

पर, इस अंतर के साथ कि इस बार लालू की जगह नीतीश कुमार हैं और नौ महीने का समय निकाल दें तो 2005 से अभीतक सीएम नीतीश कुमार ही हैं. बेशक पहले टर्म में नीतीश कुमार ने विधि-व्यवस्था सुधार कर जंगल राज का खौफ दूर किया, लेकिन जो सियासत की समाज को बांटने और वोटबैंक बनाने की, उसकी दर लालू से ज्यादा थी.

वोटबैंक के लिहाज से देश का मुस्लिम वर्ग बड़ा प्रभावी बताया जाता है. समाजवाद के नाम पर तुष्टिकरण ने इस वर्ग को और धार ही दी है. ऐसे में आबादी के लिहाज से हक की मांग इस वर्ग ने बिहार में ही उठाई है.

मंत्रीमण्डल गठन के दो दिन पहले सूबे में एआईएमआईएम के इकलौते बचे विधायक अख्तरुल ईमान ने दावा किया कि 2020 के विधानसभा चुनावों में महागठबंधन को सबसे ज्यादा वोट मुसलमानों ने दिया था, और इस लिहाज से एक मुसलमान को भी डिप्टी सीएम बनाया जाना चाहिए. ध्यान देने की बात यह है कि सात दलों से मिलकर बने महागठबंधन सरकार में एआईएमआईएम शामिल नहीं है.

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हालांकि अख्तरुल ईमान की पार्टी मुसलमानों की राजनीति के लिए ही जानी जाती है, लेकिन बिहार की समाजवादी राजद को उसकी राजनीति सूट नहीं करती, इसलिए अख्तरुल की मांग राजद के रहते पूरी नहीं होगी. फिर भी, अख्तरुल की इस मांग का महत्व ऐतिहासिक है इससे इंकार नहीं किया जा सकता और इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले समय में मुसलमान इस तरह से नहीं सोचेगा.

पिछले 32 वर्षों में लालू-नीतीश के समाजवादी प्रयोगों ने बिहार को कहां लाकर खड़ा कर दिया है, यह उसकी झलक मात्र है. सोशल इंजीनियरिंग और आबादी के मुताबिक हक जैसी शब्दावलियां इन्हीं समाजवादियों के जहरीले दिमाग की उपज हैं, इनका संवैधानिक संरक्षण नहीं है. लेकिन समाजवादियों ने इसे धार दी है और उस लिहाज से बिहार एक उभरता हुआ साफ्ट टारगेट बनता जा रहा है.

दरअसल, लालू-नीतीश जैसे समाजवादियों ने बिहारी समाज का जिस तरह से जाति के आधार पर बंदरबांट कर दिया है, वह देश के अन्य राज्यों की तुलना ज्यादा तीखा सिर्फ इसलिए है क्योंकि एक समाजवादी (लालू) ने समाजवाद के नाम पर जमकर भ्रष्टाचार किया तो दूसरे समाजवादी (नीतीश कुमार) ने भ्रष्टाचार पर कहने के लिए जीरो, लेकिन सलेक्टिव टालरेंस से समाजवाद को आगे बढा़ते हुए वहां तक पहुंचाया जब खुद को उपेक्षित बताने वाले मुसलमान, आबादी के हिसाब से हक की आवाज उठाना शुरु कर दें. बिहार की गरीबी की चित्कार अलग से है.

(नोट: उपरोक्त लेखक के निजी विचार हैं)