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‘होनहार वीरवान के होत चिकने पांव’ = जन सुराज पदयात्रा

पटना (TBN – अनुभव सिन्हा की रिपोर्ट)| व्यवस्था परिवर्तन के लिए ग्रामीण इलाकों का दौरा कर रहे प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) सत्ता के सेन्टर स्टेज पर बने हुए हैं. उनका प्रयास जितना गम्भीर है, उसे उतना ही हल्का बताने की कोशिश भी शुरु हो गई है. सूबे के मुखिया नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) इस कोशिश में सबसे आगे चल रहे हैं.

प्रशांत किशोर का सेन्टर स्टेज पर बने रहना वह स्पंदन है जो नीतीश कुमार को उसके प्रभाव क्षेत्र से बाहर निकलने नहीं देता. यह हालत उस व्यक्ति की क्यों है जो जेपी आन्दोलन (JP movement) की उपज है और यह सवाल नीतीश कुमार से कौन पूछेगा, मीडिया या खुद प्रशांत किशोर या फिर बिहार की जनता ?

मीडिया का अपना चरित्र

फिलहाल मीडिया की तरफ से ऐसा कोई सवाल पूछा नहीं जा रहा है. मीडिया का अपना चरित्र है. किशोर को यह सवाल पूछने की आवश्यकता नहीं है और बिहार की जनता तो खामोश रहना जानती ही है ! निकट के 32 वर्षों को न सिर्फ उसने गौर से देखा है बल्कि उसकी अगली पीढ़ी भी देख रही है.

इस बात पर गौर करने की जरुरत है जब राजनीतिक दल चुनाव परिणाम आने के बाद यह क्यों कहते है कि, “जीत-हार तो लगी रहती है!” अभी तो यह शुरुआत है और यदि अभी से ही नीतीश कुमार इतने खौफजदा हैं तो इसका पहला मतलब है कि प्रशांत किशोर के प्रयास गम्भीर हैं और उसके नफा-नुकसान का हिसाब-किताब भी हो रहा है.

प्रशांत किशोर को यह भली-भांति पता है कि जन सुराज पदयात्रा के जरिए उनके बड़े उद्देश्य की प्राप्ति को डायलूट करने की पूरी कोशिश होगी. क्योंकि उनका भी टारगेट ग्रुप (टीजी) वही है जिसे अबतक खण्ड-खण्ड करके हुकूमत होती आई है. लेकिन, नजरिए के अन्तर ने स्थापित हुक्मरानों के सामने वह तस्वीर पेश कर दी है जो आने वाले समय ज्यादा साफ होकर नजर आने लगेगा. प्रशांत किशोर का नजरिया ग्रामीणों के सामने वह सवाल खड़े कर देता है जिसपर उन्होने कभी ध्यान नहीं दिया.

यह लड़ाई प्रशांत किशोर बनाम…..

यथास्थितिवाद और परिवर्तन की अंगड़ाई के बीच की यह लड़ाई प्रशांत किशोर बनाम सब के बीच की नहीं, बल्कि उस नजरिए की है जो लोकतंत्र के लिए है. उस लोकतंत्र के लिए जिसने आजादी के बाद से अबतक समानता का संतोष हासिल नहीं किया, आर्थिक असमानता कम होता देखने के बजाय भ्रष्टाचार को फलता-फूलता देखा. सवाल तो है ही कि यह दूर कैसे होगा लेकिन जब शुरुआत हुई तब सवाल उठने देर नहीं लगी. क्या यह ईमानदारी से कहा जा सकता है कि भारतीय लोकतंत्र में समानता स्थापित करने की कभी कोशिश हुई ? जब कोशिश ही नहीं हुई तब इसे दूर करने के प्रयास पर उठने वाले सवाल का मतलब क्या है ? प्रशांत किशोर की सफलता-असफलता की चर्चा कर व्यवस्था बदल डालने की उनकी कोशिश का मतलब तो इतना है ही कि अण्डर करेंट महसूस किया जा रहा है जिसमें झटके से बचने की पुरजोश कोशिश ही है.

ध्यान देने की बात यह है कि जन सुराज पदयात्रा (Jan Suraaj Padyatra) में प्रशांत किशोर को किसी भी राजनीतिक दल का समर्थन नहीं है. क्योंकि वह मौजूदा व्यवस्था मे ही आमूल-चूल परिवर्तन करना चाहते हैं. यह बात किसी भी राजनीतिक दल को हजम नहीं हो सकती, खासकर बिहार में जहां अभी सत्ता नीतीश-लालू के हाथों में है. लेकिन सच भी यही है कि इतनी बड़ी सम्भावना को पूरा करने की अहर्ता बिहार में ही है जहां जदयू और राजद जैसे छोटे-छोटे दलों ने सामाजिक विभाजन और भ्रष्टाचार के कीर्तिमान स्थापित कर दिए हों.

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जो आदमी सिद्ध रुप से आर्थिक अपराधी है, वह सटीक उदाहरण है कि व्यवस्था कितनी लुंज-पुंज है. अगर ऐसा नहीं होता तो वह सरकार कैसे चला रहा होता, जबकि वह मतदान तक नहीं कर सकता ? ऐसा आदमी, उस राज्य में जिसे वह अपनी जागीर समझता हो, प्रशांत किशोर की कोशिशों को कमजोर करने की कोशिश करेगा ही. और, यह मानकर कर करेगा कि पहले की तरह मिल रहा जन समर्थन, उसे आगे भी मिलता रहेगा.

सोई हुई जनता को जगाने का काम शुरु किया

पर, सांच को आंच नहीं होती. जन सहभागिता का घोर-मट्ठा कर अपनी दाल गलाने वाले राजनीतिक दलों की लक्ष्मण रेखा चुनाव है जब कमजोर समझी जाने वाली जनता अपने अधिकार का प्रयोग करती है. प्रशांत किशोर की खूबी यह है कि उन्होने इस सोई हुई जनता को जगाने का काम शुरु किया है, उनके मताधिकार को जिस तरह से दुर्बल बनाकर रखा गया, उसको झकझोर कर उसकी गरिमा और शक्ति का एहसास करा रहे हैं किशोर जिसका परिणाम रोज के हिसाब से सामने भी आ रहा है. दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों की पदयात्रा कर रहे किशोर के पास मीडिया पहुंचती है और उनकी बातों से देश अवगत होता है.

प्रशांत किशोर की नजर अपने उद्देश्य पर है. उनका सारा फोकस बिहार पर ही है. यह सत्ताधीशों के लिए खतरे की घंटी है. लेकिन मुश्किल यह है प्रशांत के प्रयास को कमतर करने की कोशिश में आजमाए नुस्खे काम नहीं आ रहे. ग्रामीणों से बात करते समय प्रशांत कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते और आमलोग भुक्तभोगी कहलाना नहीं चाहते. यह उनकी जागरुकता का प्रमाण कैसे माना नहीं जायेगा ?

इसका बेहद मजेदार पहलू यह है कि किशोर की पदयात्रा कम-से-कम 2024 के मार्च तक चलेगी. वह समय लोकसभा चुनावों का रहेगा. चुनावों के मद्देनजर मुमकिन है पदयात्रा के शेड्यूल में थोड़ा-बहुत परिवर्तन भी हो. यह सम्भव है पदयात्रा थोड़ी और लम्बी खिंच जाए. दूसरे, इस पदयात्रा का लोकसभा चुनावों पर पड़ने वाला असर भी सामने आयेगा. पर सबसे ज्यादा असर राज्य पर हुकूमत करने वाले दलों पर ही पड़ेगा. लेकिन असली इम्तिहान तो 2025 के अक्टूबर-नवम्बर में होगा जब विधान सभा चुनाव होंगे.