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निंदा नहीं, पूर्ण रूप से राजनीतिक बहिष्कार होना चाहिए लालू-नीतीश का !

पटना (TBN – वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा की रिपोर्ट)| 1990 से शुरू हुए लालूवाद की राजनीति का दुष्परिणाम (Side effects of Laluism’s politics) यह है कि ज्ञान की भूमि बिहार आज राजनीतिक और बौद्धिक दरिद्रता से ग्रस्त है. लालू-नीतीश जैसे नेताओं ने अपनी क्षुद्र राजनीति का जो माहौल बनाया वह अब राजनीतिक अराजकता की ओर अग्रसर है. लालूवाद (Laluism) राजनीतिक अपसंस्कृति का पर्याय बन गई तो इसको और विस्तार देकर नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) ने बिहार को जातीय संघर्ष (ethnic conflict) के मुहाने पर लाकर खडा़ कर दिया. इसके अतिरिक्त बिहारी समाज को कमजोर करने के उद्देश्य से समाजवाद के नाम पर सुविचारित चोट आस्था पर की जाती है जिससे सामाजिक तानाबाना लगातार प्रभावित है. पराकाष्ठा यह है कि सत्ता शीर्ष पर बैठे नीतीश की भाषा अश्लील हो गई है. इसलिए इन दोनों का राजनीतिक बहिष्कार समय की मांग है.

लालू दंश से पीडि़त बिहार का दुःख दूर करने का ढोंग करने वाले नीतीश कुमार का कुर्सी से चिपके रहने का स्वार्थ जितना बड़ा साबित हुआ उतना ही बिहार अपनी जड़ों से कटता गया. जातीय गणना (caste census) के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था (reservation system) करना और उसके पहले जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर विधान मण्डल में अश्लील बातें करना एक वैसे शासक की मनोदशा को चित्रित करता है जिसे समाज से कोई वास्ता ही न हो ! इन दोनों कारणों से बिहार के हित में नीतीश कुमार को बर्दाश्त किया जाना मुनासिब नहीं कहा जा सकता.

निगाहें राजभवन पर टिकी

फिलहाल, जातीय गणना के आधार पर 65% आरक्षण का प्रस्ताव विधानसभा से पास करा लेने के बाद सरकार की निगाहें राजभवन पर टिकी हैं. राज्यपाल के हस्ताक्षर करते ही 65% प्रतिशत आरक्षण विधि सम्मत हो जायेगा. इसके बाद बिहार दूसरा राज्य बन जायेगा जहां आरक्षण निर्धारित सीमा से ज्यादा है. तमिलनाडू में 69% आरक्षण काफी समय से है. हालांकि बिहार का सत्ता शीर्ष जातीय गणना के आधार पर आरक्षण लागू कर प्रसन्न है, पर अब बिहार को इसकी कैसी कीमत चुकानी पडे़गी, इसे देखने के लिए अगले 30 वर्ष तक इंतजार करना पड़ सकता है. क्योंकि 1990 में मण्डल आयोग की अनुशंसा के बाद 27% आरक्षण का मामला कोर्ट में चला गया था, लेकिन तीन साल में सुप्रीम कोर्ट ने मामले को निपटा दिया और 1993 से आयोग की अनुशंसाएं लागू हो गईं. उसे देखते हुए बिहार में दिए गए आरक्षण को चुनौती देने की सम्भावना कम है. लालू राज (1990-2005) और 2005 से अबतक नीतीश राज में 27% आरक्षण का लाभ पिछडो़ं को कितना मिला इसका कोई आधिकारिक आंकडा़ सार्वजनिक नहीं है पर राज्य सरकार बिहार को पिछड़ा कहने में शर्म नहीं करती और अब जातीय आधार पर आरक्षण लागू कर देने के बाद बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग फिर से की जा रही है.

लालू-नीतीश की विश्वसनीयता पहुंची रसातल में

लेकिन, जातीय आधार पर आरक्षण की जो व्यवस्था हुई है, वह बिहार सरकार का नया दांव है जो फौरी तौर पर लाभार्थी वर्ग के हित में कम, सुनिश्चित राजनीतिक लाभ से ज्यादा प्रेरित है. 1990 में पिछडो़ं को दिया गया आरक्षण 2023 के अंतिम तिमाही तक खतरनाक तरीके से जातियों तक पहुंचा दिया गया. एक की वाहवाही लालू ने लूटी तो दूसरे की वाहवाही लूटने की फिराक में नीतीश कुमार हैं. यह तब है जब अभी दोनों साथ हैं और दोनों की विश्वसनीयता रसातल में पहुंची हुई है. इस बिन्दू पर जातीय गणना का जो सच सामने आता है, वह हैरत में डालता है.

जातीय गणना के आंकड़ें संदिग्ध

जातीय गणना के आंकड़ें सार्वजनिक हैं और एक क्लिक की दूरी पर हैं. कई कारणों से ये आंकड़ें संदिग्ध भी हैं. सरकार ने सर्वे कराया. लेकिन सर्वे टीम सूबे के हर घर तक नहीं पहुंची. पर आंकड़ें राज्य स्तरीय हैं. यह बताता है कि सैम्पल सर्वे हुआ और आंकड़ें फिल्ड वर्क के बजाय टेबुल वर्क के जरिए जुटाए गए. आंकड़ें सिर्फ यही नहीं बोलते कि दलितों, पिछडो़ं, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कैसे हालात हैं बल्कि सरकार जिसे लाभार्थी वर्ग बता कर उन्हें विकास की मुख्य धारा में शामिल करने का ढोल पीट रही है, वह तात्कालिक तौर मिल सकने वाले राजनीतिक लाभ के उद्देश्य पर केन्द्रित है. राजद-जदयू के इस राजनीतिक लाभ लेने की मंशा से बिहार का संकट आयामित होने की आशंका है क्योंकि जातीय आधार पर आरक्षण की व्यवस्था कर सरकार ने राज्य के गांव-गांव तक जातीय संघर्ष सुनिश्चित कर दिया है.

अगली कड़ी जातीय संघर्ष

लालू-नीतीश ने अपनी शासन पद्धति का जो दुष्प्रभाव छोडा़ है, सूबे को जातीय संघर्ष में झोंक देना उसकी अगली कड़ीं है. लालू यादव ने जहां अपने शुरु के शासनकाल में लूट, अपराध, अपहरण की संस्कृति स्थापित कर राज्य को बदहाल करके छोड़ दिया तो लालू विरोध की राजनीति कर 2005 में सत्ता सम्भालने वाले नीतीश कुमार कुर्सी से ऐसे चिपके कि सरकारें बदलती रहीं, मुख्यमंत्री वही रहे. सरकारी प्रचार तंत्र उनकी छवि को गढ़ने में कामयाब नहीं हो पाया. बड़ी वजह समाज को बांटने की रही जो वर्ग से होते हुए अब जाति पर पहुंच गई है.

अपना वजूद बचाना उनके लिए मुश्किल

बिहार की भौगोलिक स्थिति और इसके मिजाज को देखते हुए बिहार को विकसित करने की दृष्टि से लालू-नीतीश दोनों महरूम हैं. इसलिए न सिर्फ बिहार पिछड़ा रहा बल्कि यथास्थिति बनाए रखने का पुख्ता इंतजाम किया गया है. इसका तत्व जातीय आधार पर दिए गए आरक्षण में निहित है. इस तत्व की अनदेखी नहीं हो सकती जिसका मूल कारण राजनीति है. दरअसल, व्यक्तिवादी राजनीति पर जिस तरह से प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने चोट करनी शुरू की, उससे कांग्रेस सहित तमाम क्षेत्रीय दलों की जडे़ं हिल गईं. व्यक्तिवादी होने के नाते कांग्रेस सहित अधिकांश क्षेत्रीय दल भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे होने के कारण कानून की जद में आते चले गए और स्थिति यह हो गई है कि अपना वजूद बचाना उनके लिए मुश्किल हो गया है. ऐसे में सभी दल पूरी ताकत झोंक रहे हैं ताकि नरेन्द्र मोदी को सत्ता से बाहर किया जा सके. पर उनकी क्षुद्र राजनीति और भ्रष्टाचार बौने साबित होते रहे हैं. इस स्थिति से निबटने के लिए इन दलों ने समाज के बहुसंख्यक हिन्दू आबादी को बांटने और धर्म के नाम पर नीचा दिखाने की राजनीति को आगे बढा़या है. बिहार में जातीय आधार पर आरक्षण हिन्दुओं के बीच तनाव पैदा कर उसका लाभ लेने की ही कोशिश है.

नीतीश पर पड़ सकता है भारी

आरक्षण के प्रस्ताव पर राज्यपाल के हस्ताक्षर को लेकर बिहार सरकार कितनी उतावली है इसका अंदाजा तब लगा जब एक सार्वजनिक कार्यक्रम में नीतीश कुमार ने राज्यपाल से हस्ताक्षर करने का आग्रह किया. लेकिन यह देखने वाली बात होगी कि आरक्षण को लेकर नीतीश कुमार जितना ढोल पीट रहे हैं, वह किस तरह से सामने आता है. सामाजिक असंतोष पनपने की आशंका के बीच सूबे की महिलाएं उनके प्रजनन संबंधी बयान को लेकर काफी क्षुब्ध हैं और उनका आक्रोश नीतीश कुमार पर भारी पड़ सकता है.

(उपरोक्त लेखक के निजी विचार हैं)