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यादव बनाम गैर-यादव की अदावत का मसला नीतीश के लिए बना जी का जंजाल

पटना (TBN – वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा की रिपोर्ट)| महागठबंधन सरकार बनने से जितना उन्मादी उत्साह राजद में है उतना गठबंधन के अन्य किसी भी घटक दल में नहीं है. यह स्थिति विस्फोटक भी हो सकती है.

इसको भांप कर नीतीश कैम्प की बेचैनी बढ़ रही है. इसका ताल्लुक़ सीधा राजद से है, इसलिए उसकी नजर भी इस अण्डरकरेंट पर बनी हुई है.

ऐसा लगता है कि जदयू को महागठबंधन सरकार का नेतृत्व करने से ज्यादा खुशी इस बात की है कि उसने भाजपा को बिहार की राजनीति में अकेला कर दिया है. क्योंकि नीतीश कुमार ने एक झटके में भाजपा से अलग होने का फैसला लेकर पूरा चुनावी गणित ही उलट दिया. कल तक जो एनडीए के खाते में था, अब वह महागठबंधन के खाते में है.

लेकिन चुनावी गणित का हिसाब-किताब मतदाता तय करते हैं. इस स्थिति पर गौर करने के बाद जो जमीनी सियासत है, उस पर नजर डालने पर खासकर नीतीश खेमा बेचैनी महसूस कर रहा है.

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लालू यादव के वोटबैंक से अलग 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद से नीतीश कुमार ने सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर कई प्रयोग किए और अपने चुनावी गणित का फार्मूला तैयार किया जिनमें गैर-यादव पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण रही है.

इन दोनों वर्गों का महत्व इस बात से है कि इन्होने राजद की चुनावी सफलता को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसका लाभ जदयू को मिला. ये दोनों ही वर्ग यादव जाति की प्रताड़ना से आजिज थे और इसलिए राजद की सत्ता में वापसी का इन्होंने परिणाम मूलक विरोध किया. लेकिन अब नीतीश कुमार के एक बार फिर राजद से हाथ मिलाने के बाद यह वर्ग ठगा हुआ सा महसूस कर रहा है जिससे जदयू और राजद, दोनों के कान खड़े हो गए हैं.

मुश्किल यह है कि इस बड़े वर्ग का रुझान अपनी तरफ मोड़ने के लिए भाजपा तत्पर है तो जदयू के पास इस वर्ग को अपने पाले में बनाए रखने का ठोस कारण सूझ नहीं रहा है. यादव बनाम गैर-यादव की अदावत पुरानी है जो वोटबैंक के रुप में जदयू के लिए तबतक मुफीद था जबतक राजद और जदयू के बीच विरोधी का संबंध था.

(उपरोक्त लेखक के निजी विचार हैं)