बिहार की गड़बड़ स्थिति: नीतीश कुमार क्यों हैं इस समय विषम परिस्थिति में
पटना (TBN- The Bihar Now डेस्क) | बिहार आज एक खराब स्थिति में है – यह किसी राजद नेता का राजनीतिक बयान नहीं है, बल्कि राज्य के लोग यही कह रहे हैं. कोरोना वायरस के मामलों में अचानक वृद्धि अप्रत्याशित रूप से नहीं आई है. बिहार कोरोना संक्रमण की पहली लहर से तो निकल गया, फिर भी बिहार ने इस महामारी से लड़ने की तैयारी के लिए मिले कीमती समय को खो दिया.
इतना ही नहीं, राज्य के बड़े हिस्से में बाढ़ ने इस संकट को और बढ़ा दिया है. प्रवासियों की वापसी ने पहले ही राज्य के संकट को बढ़ा दिया था, उसपर इसने बेरोजगारी को भी एक नई ऊंचाई पर धकेल दिया.
गत 17 जुलाई को, द लांसेट (The Lancet) ने कोरोनवायरस के लिए देशभर के 20 सबसे कमजोर जगहों में बिहार के 8 जिलों को शामिल किया. बिहार में पिछले 10 दिनों से कोरोनोवायरस के लगातार बढ़ते मामलों ने द लैंसेट की इस रिपोर्ट के विश्लेषण को मजबूती दी है.
बिहार राज्य में स्वास्थ्य का आधारभूत ढांचा खराब रहा है और नीतीश कुमार ने अपने शासन के 15 सालों में बहुत कुछ नहीं बदल पाए हैं. राज्य के जिला अस्पताल, माध्यमिक और तृतीयक अस्पताल सभी एक मनहूस स्थिति में हैं और उनमें से कोई भी कोरोना जैसी महामारी को संभालने में सक्षम नहीं है.
कोरोनो वायरस महामारी ने एक और बात को उजागर कर किया है. याद कीजिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के इस साल के शुरुआत में क्या कहा था. दिल्ली में विधानसभा चुनावों से पहले केजरीवाल ने कहा था कि ‘बिहार के लोग 500 रुपये का टिकट खरीदते हैं और दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में 5 लाख रुपये का मुफ्त इलाज करवाते हैं’. इस पर नीतीश कुमार ने केजरीवाल के बयान को गलत बताया था और कहा था कि ‘दिल्ली का बरारी इलाका 2005 के बिहार जैसा लगता है’.
लेकिन आज पूरे राज्य के लिए बिहार के कई लोग यही कह रहे हैं कि आज का बिहार 2005 के बिहार जैसा लगता है.
प्रवासी बिहारी और कोविड-19 परीक्षण
बिहार में क्वारेंटीन सेंटर भ्रष्टाचार, घटिया भोजन और रहने की की खराब व्यवस्था की शिकायतों के कारण विवादों में घिर गए थे. क्वारेंटीन सेंटर से लौटने वालों को बाल्टी और कॉटन की चादरें ले जाने की अनुमति थी. कई स्थानों पर तो, क्वारेंटीन के निर्धारित समय समाप्त होने से पहले ही लोगों ने सेंटरों को छोड़ दिया था.
संयोगवश, बिहार मध्य जून में प्रवासियों की वापसी के लिए बने क्वारेंटीन सेंटर को बंद करने वाला पहला राज्य बन गया. उसी महीने की शुरुआत में प्रवासियों के पंजीकरण को भी बिहार ने बंद कर दिया था.
बिहार में कोरोनोवायरस का परीक्षण बहुत कम किया गया है. यहां बाहर से लौटने वाले प्रवासियों का भी व्यापक परीक्षण नहीं किया गया. इस अवधि के दौरान बिहार में बहुत कम कोरोना संक्रमितों की संख्या सामने आई जिसका एकमात्र कारण यहां पर्याप्त परीक्षण नहीं होना था. कुछ लोगों द्वारा कम टेस्टिंग होने को भी सरकार की विफलता का एक कारण माना जा रहा है.
आज दिल्ली में, जहां की आबादी बिहार की आबादी का एक चौथाई से भी कम है, 1 लाख लोगों पर 4,500 कोविड-19 टेस्ट किया जाता है, वहीं बिहार में केवल 300 टेस्ट होते हैं.
हालांकि, हाल के दिनों में बिहार में टेस्ट संख्या कुछ दिनों से 10,000 को पार कर रहा है. टेस्टिंग की संख्या बढ़ने के साथ ही बिहार कोरोनोवायरस के मामलों में लगातार वृद्धि दर्ज की जा रही है.
द लैंसेट (The Lancet) रिपोर्ट के बाद, केंद्र ने रविवार को बिहार में तीन सदस्यीय टीम भेजी. जाहिर है, केंद्र ने यह काम खुद काम किया. गौरतलब है कि नीतीश कुमार सरकार ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तरह केंद्र से मदद नहीं ली. बता दें कि केजरीवाल ने दिल्ली में महामारी के प्रसार को रोकने के के लिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ बैठक कर समन्वय स्थापित किया था जो कि नीतीश कुमार ने नहीं किया.
बिहार में कहाँ हैं डॉक्टर?
बिहार में कोरोनावायरस की बदतर स्थिति के लिए एक संभावित कारण यह भी है कि यहां पर्याप्त स्वास्थ्य पेशेवरों की कमी है. देशभर में सबसे कम डॉक्टर-मरीज और बेड-जनसंख्या का अनुपात बिहार में है.
इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) द्वारा तैयार नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के अनुसार, बिहार में सरकारी अस्पतालों में 2,792 एलोपैथिक डॉक्टर हैं जबकि इसके विपरीत, कम जनसंख्या वाले दिल्ली में सरकारी अस्पतालों में 9,121 एलोपैथिक डॉक्टर हैं.
देश में सिक्किम, मिजोरम, मणिपुर या झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे भी राज्य हैं जहां सरकारी डॉक्टरों की संख्या कम हैं लेकिन इन राज्यों की आबादी बहुत कम है डॉक्टरों द्वारा देखभाल के लिए.
बिहार में, प्रत्येक 43,788 व्यक्तियों के लिए एक डॉक्टर उपलब्ध है. जबकि दिल्ली में, एक डॉक्टर औसतन 2,028 लोगों की सेवा करता है; सिक्किम में, सिर्फ 268 सरकारी एलोपैथिक डॉक्टर हैं जो औसतन 2,540 लोगों को देखते हैं.
हालांकि देश के सभी राज्यों में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मानक के अनुसार डॉक्टरों की कमी है, लेकिन बिहार राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफ़ाइल में सबसे नीचे है. WHO के अनुसार प्रत्येक 1,000 व्यक्तियों के लिए एक एलोपैथिक डॉक्टर होना चाहिए.
बिहार में मेडिकल कॉलेज-अस्पतालों में डॉक्टरों के लिए स्वीकृत 3,000 पद खाली पड़े हैं. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA) ने इन रिक्तियों पर तत्काल भर्ती के लिए कई बार राज्य सरकार को पत्र लिखा है, लेकिन इन सभी को सरकार द्वारा अनसुनी कर दी गई है.
बिहार में निजी क्लीनिक और अस्पतालों द्वारा कोरोनवायरस से लड़ने में कोई मदद नहीं मिली है. दरअसल, सरकार ने अभी तक उचित गाइड्लाइन जारी नहीं की है जिससे निजी क्लीनिक और अस्पतालों को महामारी से लड़ने के लिए उतारा जा सके.
पर्याप्त स्वास्थ्य पेशेवरों की कमी के कारण हो सकता है कि कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों के बावजूद, 13 करोड़ की आबादी वाले बिहार में सिर्फ दो कोविद-9 डेडिकेटेड अस्पताल हैं.
लेकिन स्वास्थ्य पेशेवरों की कमी एक ऐसा मुद्दा नहीं है, जो कोरोनोवायरस महामारी के दौरान पैदा हुई है. दरअसल में बिहार की यह एक बहुत पुरानी समस्या है जिसे सरकार ने कभी भी गंभीरता से नहीं लिया है.
लोगों द्वारा मानकों की अवहेलना
लेकिन सिर्फ नीतीश कुमार सरकार को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता. बिहार के किसी भी कस्बे से गुजरने पर जवाब मिल जाता है.
टीवी पर दिखाए गए वीडियो क्लिप और सोशल मीडिया पर मौजूद तस्वीरें इस बात के पर्याप्त संकेत देती हैं कि बिहार के लोगों ने आमतौर पर कोरोना वायरस से बचने की सलाह का पालन नहीं किया है. हर फोन कॉल संदेश देता है कि कोरोनोवायरस महामारी के दौरान कैसे सुरक्षित रहें, फिर भी यहां के लोग इसकी अवमानना करते दिख जाते हैं.
बिहार में जिला और राज्य की सड़कें पोस्टर और बैनर से अटी पड़ी हैं, जो लोगों को मास्क पहनने, सोशल दिसटंकिनग बनाए रखने और व्यक्तिगत स्वच्छता का पालन करने के लिए कहते हैं. लेकिन सड़कों पर, भीड़-भाड़ वाले बाजारों में लोग एक-दूसरे के साथ बिना मास्क के घूमते हैं तथा सुरक्षा मानकों का पालन नहीं करते दिख जाते हैं.
कई मौकों पर, पुलिस ने इसका उल्लंघन करने वालों में से कुछ पर फाइन भी लगाया है लेकिन व्यक्तियों के समूह को पुलिस दंडित नहीं कर पाती है.
कोरोना के कहर के साथ, बिहार तीन महीने के भीतर विधानसभा चुनाव के लिए कमर कस रहा है. चुनाव आयोग और जिला प्रशासन बूथ स्तर के काम को चरणबद्ध पूरा करने के लिए लोगों को नियुक्त कर रहे हैं.
विपक्ष चाहता है कि विधानसभा चुनाव टाल दिया जाए. सत्तारूढ़ गठबंधन बिहार में चुनाव के संचालन के पक्ष में है. और तो और, युवाओं के एक समूह ने चुनाव आयोग को अपने पिछले प्रदर्शन के आधार पर नीतीश कुमार को अगले पांच साल के लिए बिना चुनाव विजेता घोषित करने के लिए लिखा है.