शैक्षणिक व्यवस्था पर उदासीन लेकिन राजनीति पर सजग और सक्रिय नीतीश सरकार
पटना (TBN – वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा की रिपोर्ट)| सरकारी विद्यालयों में धार्मिक आधार पर वर्ष 2024 में छुट्टियों का विभाजन नीतीश कुमार की सोची-समझी चाल है. मुसलमानों के त्यौहारों में छुट्टियां बढ़ा दी गईं हैं जबकि हिन्दू त्यौहारों की छुट्टियां कम कर दी गईं हैं. भले यह नए मुल्ले के ज्यादा प्याज खाने जैसा हो, नीतीश कुमार यह मानकर चल रहे हैं कि 2025 तक की उनकी राजनीति पक्की है. उनकी सारी रणनीति 2025 तक के लिए ही है. मंशा यही है कि मुसलमानों का एक भी वोट उनकी अगुवाई में महागठबंधन से न छिटके, क्योंकि उनको हिन्दुओं के वोट बंटने का पूरा भरोसा है. जातीय गणना सर्वे से प्राप्त आंकडो़ं के अनुसार बिहार में 82.35% हिन्दू और 17.65% मुसलमान हैं.
बिहार आरक्षण कानून लागू हो जाने के बाद से नीतीश कुमार का हर कदम इसी बात पर केन्द्रित है कि यदि आरक्षण कानून को नौंवी अनुसूची में केन्द्र ने शामिल नहीं किया तब जातीय गणना की मांग जंगल में आग की तरह देश भर में की जायेगी. बिल्कुल संतरे के फल जैसा जो छिलका रहने पर एक नजर आता है पर छिलका उतारने पर उसकी फांकें नजर आती हैं. इस बिन्दू पर मंशा यही है कि एकजुटता के नाम पर भले अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग स्थिति बने, पर वह मजबूती से भाजपा अथवा एनडीए के खिलाफ ही होगा. यह राजनीतिक दृष्टि इंडी अलायंस की जीत के बजाय गैर-भाजपा विपक्षी दलों के अपनी राजनीति की छूट जरूर देती है.
अभ्यर्थी ग्रैजुएट हैं अथवा नहीं
आरक्षण कानून लागू हो जाने के बाद नीतीश कुमार ने जो तेजी दिखाई और सभी विभागों में नौकरी के लिए नए आरक्षण को लागू करने में कोई चूक न रहने की हिदायत दी, वह सरकार की मुस्तैदी को दिखाता है. थोडी़ देर के लिए यह मान भी लें कि दलित और अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थी को भी नौकरी मिल जायेगी, पर सवाल तो यह है कि दलित और जनजाति वर्ग से आने अभ्यर्थी ग्रैजुएट हैं अथवा नहीं. ग्रैजुएट तो कोई तब होगा जब उसका नामांकन हो. हालांकि नामांकन में भी समान आरक्षण है पर छात्र-छात्राएं हों तो सही!
बिहार में महज 80 लाख ही ग्रैजुएट
स्थिति यह है कि सरकार जो दलित कार्ड खेलना चाहती है और उसके लिए उसने जो पृष्ठभूमि (आरक्षण) तैयार की है, दलित और जनजाति वर्ग के युवक और युवतियां इसकी पात्रता नहीं रखते. सरकारी आंकडो़ं के मुताबिक 13 करोड़ की आबादी वाले बिहार में महज 80 लाख ही ग्रैजुएट हैं. इसमें पिछडो़ं और अनुसूचित जाति के ग्रैजुएट तो हो सकते हैं पर दलितों और जनजाति वर्ग से आने वाले युवक और युवतियों के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता. शैक्षणिक संस्थानों में नए आरक्षण कानून लागू होने के पहले तक पिछडे़ और अनुसूचित जाति वर्ग के युवाओं को जितना लाभ मिला हो, वह दलित और जनजाति वर्गों को नहीं मिला. इसका परिणाम यह है कि दलित और जनजाति वर्ग से आने वाले युवक और युवतियों की शिक्षा हाई स्कूल से आगे की नहीं हो पाती और जो इण्टरमीडियेट कर भी लेते हैं तो कालेजों में उनका नामांकन नहीं हो पाता.
आरक्षण का लाभ वह कब से उठा पायेंगे ?
मतलब साफ है. सरकार ने फिल्ड वर्क (जातीय गणना सर्वे) तो करा लिया, होम वर्क नहीं किया. इसको पहले कह देना सरकार ने मुनासिब नहीं समझा कि जिस दलित वर्ग को 25% और अनुसूचित जनजाती को 2% आरक्षण मिलेगा, उसका लाभ वह कब से उठा पायेंगे. जबतक ये दोनो वर्ग नामांकन और नौकरी में आरक्षण के योग्य हो सकें, तबतक राजनीति होती रहेगी. इधर विद्यालय स्तर पर शिक्षकों की बहाली और रिक्त पदों पर बहाली के लिए परीक्षा में सरकार ने तेजी दिखाई है, लेकिन उच्चतर शिक्षण संस्थानों का हाल तो और भी बुरा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के 13 विश्वविद्यालयों में कार्यरत शिक्षक अध्यापन के अतिरिक्त प्रशासनिक जिम्मेदारी भी निभाते हैं और अधिकांश शिक्षकों के पास चार-चार विभागों की प्रशासनिक जिम्मेदारियां हैं. शिक्षा विभाग का तोता रटंत यह है कि इसकी जानकारी नहीं थी और हम देखेंगे. विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की संख्या में भारी कमी है जिसके चलते एक-एक शिक्षक को चार-चार विभागों की प्रशासनिक जिम्मेदारियां उठानी पड़ती है जिसका नतीजा है कि शैक्षणिक सत्र और शिक्षण दोनो बुरी तरह से प्रभावित होते हैं और परीक्षाएं विलम्ब से होती हैं. शिक्षण के अलावा प्रशासनिक जिम्मेदारी दिए जाने के सिलसिले में मगध विश्वविद्यालय के कुलपति शशि प्रताप शाही का कथन विचरणीय है. चार-चार विभागों की प्रशासनिक जिम्मेदारी के सवाल पर उन्होने कहा कि, “सक्षम लोग मिल जाएं तो सबको एक ही पद का प्रभार सौंपा जायेग. एक शिक्षक एक पद का सरकार का फरमान नौ महीना पुराना है. सवाल है कि अभी तक क्या सरकार सोई है ?
शैक्षणिक व्यवस्था पर उदासीन लेकिन राजनीति पर सजग और सक्रिय
सरकार के होमवर्क को देखें और आरक्षण के मसले पर उसकी तेजी को निहारें तो एक बात साफ नजर आती है कि शैक्षणिक व्यवस्था के नाम पर वह जितनी उदासीन नजर आती है, राजनीति को लेकर वह उतनी ही सजग और सक्रिय है. आरक्षण से लाभार्थी वर्ग को लेकर उसकी राजनीति बेनकाब हो चुकी है. सबसे ज्यादा आरक्षण दलितों को दिया गया है क्योंकि उनकी संख्या अधिक है. लेकिन आरक्षण की संवैधानिक शर्त शैक्षणिक योग्यता है न कि संख्या और इसी को आधार बनाकर सरकार के इस ड्रीम कानून को पटना उच्च न्यायालय में चुनौती भी दे दी गई है. केन्द्र सरकार के पास नीतीश सरकार ने आरक्षण को नौंवी अनुसूची में डालने और बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने का अनुरोध पत्र भेज दिया है लेकिन अल्टिमेटम भी दिया है.
पर सरकार के नजदीकी सूत्रों के अनुसार चिंता उस वर्ग से ज्यादा है जिसे सबसे ज्यादा आरक्षण मिला है यानी दलित वर्ग. दलित और अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोग घोर सरकारी उपेक्षा का शिकार रहे है. इन्हें आरक्षण के योग्य बनाने की चिंता पर जोखिम यह है कि जबतक योग्यता के स्तर तक यह वर्ग पहुंच पाये, तबतक राजनीति करना चुनौतीपूर्ण बना रह सकता है. इनकी बडी़ संख्या से जहां सरकार बडा़ राजनीतिक लाभ लेना चाहती है वही अपनी आधी-अधूरी तैयारी से चिंतित भी है.
ऐसे में धार्मिक आधार पर विद्यालयों में छुट्टी की कटौती का लब्बो-लुआब यह है कि महागठबंधन को मुसलमानों का शत प्रतिशत वोट मिलेगा और हिन्दुओं का वोट बंटेगा जिससे महागठबंधन को लाभ मिलेगा. बिहार जैसे पिछडे़ राज्य में सरकार 82% और 18% का जो खेल खेलना चाहती है उससे उसका उद्देश्य कैसे पूरा होता है यह बिहार के भविष्य के लिहाज से महत्वपूर्ण है.