बिहार को जातीय तनाव में झोंकने को तैयार लालू
पटना (TBN – वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा खास की रिपोर्ट)| राजद सांसद मनोज झा के विवादास्पद कविता पाठ से खडा़ हुआ बवाल प्रायोजित है. सांसद के जरिए लालू यादव ने अपने राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए बिहार की राजनीति को जतीय तनाव के हवाले कर दिया है.
यह बिहार जैसे एक पिछडे़ प्रदेश के पिछड़ी जाति से आने वाले वैसे नेता की कारस्तानी है जो न सिर्फ सजायाफ्ता है बल्कि जाति और राजनीतिक दृष्टि दोनों से पिछडा़ है और सियासत की बदौलत सूबे को भी पिछडा़ बनाए रखना चाहता है.
यह बडा़ ही दिलचस्प है कि आखिर यह सब होता कैसे है! भाजपा को छोड़ दें तो लगभग सारे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल खुद को सेक्यूलर ही बताते हैं. इन्हें यह पता है कि सिर्फ अल्पसंख्यक (मुसलमान) मतों के सहारे सत्ता तक पहुंच पाना असम्भव है. इसलिए बची बहुसंख्यक आबादी को अपने पाले में लाने के लिए समाज को जातियों में बांटने और उनके बीच के सौहार्द्र को नष्ट करने का आजमाया नुस्खा इनके काम आता है. बहुसंख्यक आबादी में वह घड़ा भी शामिल है जिसे सवर्ण कहा जाता है और खुद को बुद्धिजीवी समझने वाला यह समाज भी आसानी से जातिवादी नेताओं के बनाए चक्रव्यूह में फंस कर समाज का अहित तो करता ही है, पिछडी़ राजनीतिक दृष्टि रखने वाले नेताओं का हित साध देता है.
चारा घोटाले में सजायाफ्ता लालू को वैसे तो चुनाव लड़ने और वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया गया है, लेकिन वह अपने दल राजद का सर्वेसर्वा है. 1990 से 2005 के मार्च तक राजद की सरकार रही और उस दौरान लालू ने जो बीज बोये, उसकी फसल काटने की स्थिति हमेशा बनी ही रहती है. उदाहरण के लिए इसके राज्यसभा सांसद मनोज झा के विवादास्पद कविता पाठ को लिया जा सकता है. लगभग एक सप्ताह के बाद इस कविता पाठ पर प्रतिक्रिया स्वरुप आनंद मोहन का भड़काऊ बयान आया. कविता में जिस ठाकुर की चर्चा है, उसे आनंद मोहन ने राजपूत बिरादरी से जोड़ दिया जिसके बाद इसके मायने बदल गए. लालू की मंशा यही है.
बिहार के लालू दौर की राजनीति को देखने-समझने वालों को 1995 का विधान सभा चुनाव याद करना चाहिए. तब बतौर बिहार पीपुल्स पार्टी सुप्रीमो, आनंद मोहन गांव-गांव हेलिकाप्टर से पहुंचते थे और लालू यादव को गरियाते थे. जवाब में लालू यादव आनंद मोहन को सामंतवादी बताकर गरीबों के मसीहा की सरकार को सत्ता से बाहर करने की साजिश बताते और लोगों को भ्रमित न होने की सलाह देते थे. इसका फायदा लालू यादव को मिला और दूसरी बार सत्ता पर काबिज हो गए. वोट कटवा पार्टी की पहचान बनाए आनंद मोहन के बिना लालू जीत सम्भव नहीं थी. लेकिन यह सम्भव इसलिए हो सका क्योंकि आनंद मोहन ने लालू के एजेंट के रुप में लालू के ही खिलाफ धुंआधार प्रचार किया हेलिकाप्टर से जिसे लालू ने ही उपलब्ध कराया था.
अब 28 वर्ष बाद फिर वैसे ही खेल की बिसात बिछाई जा रही है. चेहरे वही हैं. लेकिन लालू और आनंद मोहन दोनों को लगता है कि समय और स्थितियों में कोई बदलाव नहीं आया है. दोनों ही सजायाफ्ता हैं. आनंद मोहन अगर फिर एक बार सूबे की राजपूत बिरादरी को गोलबंद करें तो सवर्ण जातियों में वोटों का बंटवारा हो सकता है. यह बंटवारा इस बात पर निर्भर करेगा कि वह कितने आक्रामक होते हैं और सवर्ण समाज के बीच कितना तनाव पैदा कर पाते हैं. इसका असर पिछडी़ जातियों पर पड़ना भी तय है जिससे मुसलमानों और पिछडी़ जातियों का वोट लालू यादव के पाले में जा सकता है और एक बार फिर आनंद मोहन लालू के काम आ सकते हैं.
यह उस बिहार के सवर्ण समाज की स्थिति है जो बिहार के पिछडे़पन पर खूब चिल्लाता है. जबकि पिछडी़ जातियों की चर्चा राजनीतिक रुप से बेहद जागरुक मतदाता के रुप में की जाती है और फायदा उठाने वाले लालू यादव को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बिहार का पिछडा़पन और कितनी खाई में चला गया.
(उपरोक्त लेखक के अपने विचार हैं)