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असुरक्षित नीतीश कुमार को ऐसे फांसा लालू ने..!

पटना (TBN – वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा की रिपोर्ट)| क्या सचमुच जदयू को तहस-नहस कर देने की योजना पर भाजपा सक्रिय थी जिसे समय रहते नीतीश कुमार ने भांप लिया और इस तरह आपरेशन लोटस बिहार में औंधे मुंह गिर गया ?

इसकी पूरी सच्चाई तब सामने आयेगी जब मौका आने पर नीतीश कुमार वह आडियो सार्वजनिक करेंगे जिसमें कथित तौर पर भाजपा के एक केन्द्रीय मंत्री द्वारा जदयू विधायकों को तोड़ने के लिए प्रलोभन दिए जाने की आवाज रिकार्डेड है. ऐसे चार से छह आडियो हैं जिन्हें नीतीश कुमार ने सम्भाल कर रखा हुआ है.

भाजपा से संबंध विच्छेद का यह कारण जितना तथ्यपरक हो और सार्वजनिक किए जाने पर जो भी विवाद हो, नीतीश कुमार अपना मैसेज दे चुके रहेंगे. इस मास्टर स्ट्रोक की लसलसाहट एक-दूसरे के लिए प्रतिस्पर्धी बने तमाम विपक्षी दलों को कितना जोड़ पायेगी और मतदाताओं का फैसला क्या होगा, यह भविष्य की बात है.

हालांकि इससे यह जरूर जाहिर होता है कि अपनी रणनीतिक सफलता के प्रति नीतीश कुमार आश्वस्त हैं, पर राजद से हाथ मिलाने के पहले लालू यादव से हुई बातचीत के परिणाम पर उन्होने गौर नहीं किया होगा, यह मानने का कोई कारण स्पष्ट नहीं है. राजद-जदयू वार्ता की शर्त यह है कि 2025 विधानसभा चुनावों के पहले मौजूदा विधानसभा की अवधि में डेढ़ साल तक तेजस्वी यादव सीएम की कुर्सी सम्भालें ताकि उन्हें आगे कोई दिक्कत न हो.

2024 में लोकसभा चुनावों के खत्म होने पर यह डेढ़ साल का वक्त शुरु होता है. इस बीच देश भर के विपक्षी दलों को जोड़ने का भागीरथ प्रयास नीतीश कुमार करें ताकि कांग्रेस पार्टी सहित अन्य दलों के सहयोग से पीएम की कुर्सी पर काबिज हो सकें.

पिछड़े राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा देने संबंधी उनका बयान आने के बाद जाति आधारित जनगणना का जिक्र भी करें तो कोई आश्चर्य नहीं. ऐसे प्रयास विभिन्न वैसे राज्यों को को करीब ला सकती है जहां भाजपा कमजोर है लेकिन सीटों की संख्या ज्यादा नहीं है. जो बड़े राज्य हैं वह सब भी भाजपा की विदाई के सपने देखते हैं, लेकिन मुख्य समस्या दो है.

पहली समस्या विपक्षी दलों को एकजुट करना है. दूसरी समस्या है कि सारे विपक्षी दल कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करें और इस दूसरी समस्या की ही पूंछ भी है कि कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी के बजाय नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बनाए जाने पर सहमत हो जाए. इसका आधार यह बनाया जा सकता है कि खुद कांग्रेस पार्टी में ही बहुतेरे लोग हैं जो पीएम के रुप में राहुल गांधी को स्वीकार नहीं करेंगे. टूट और विघटन से जूझ रही कांग्रेस पार्टी के लिए इतनी तसल्ली काफी होनी चाहिए कि उसके नेतृत्व में विपक्षी एकता के कारण भाजपा को सत्ता से बेदखल किया जा सका.

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नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा कुछ ऐसी स्थितियों और चरणों से गुजरती हुई मंजिल तक पहुंचेगी. भाजपा को बेदखल करने का लक्ष्य तब पूरा हो सकेगा.

पर राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार नीतीश कुमार की योजना अव्यावहारिक है. क्षेत्रीय क्षत्रप अपने हितों की तिलांजलि नहीं देंगे. बल्कि ज्यादा गुंजाइश इस बात की है कि लोकसभा चुनाव भाजपा एवं उसके सहयोगी, कांग्रेस एवं उसके सहयोगी और क्षेत्रीय क्षत्रपों के गठबंधन के बीच त्रिकोणीय हो जाएं.

राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुमान नीतीश कुमार के लीड रोल को नकारते हैं. लोकसभा चुनावों के मुकाबले चाहे जितने कड़े और दिलचस्प हों, नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक सर्वमान्य चेहरा बनकर उभरने में व्यावहारिक कठिनाइयां नीतीश कुमार को कामयाब होने से रोकने वाली साबित होंगी.

ऐसे में बैक टू होम मुख्यमंत्री रहते हुए भी चुनावों में लगे रहने के कारण बिहार के शासन-प्रशासन से दूर नीतीश कुमार की जिम्मेदारी तेजस्वी यादव के हाथ मे ही रहने की सम्भावना है जिसका परोक्ष आशय नीतीश को सत्ता से दूर रखने का ही है.

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लेकिन बुरी स्थिति तब होगी जब लोकसभा चुनावों में नीतीश कुमार को कामयाबी न मिले. उस फ्रंट पर मिली नाकामयाबी नीतीश कुमार के ताबूत में आखिरी कील साबित हो सकती है क्योंकि तबतक शर्त को पूरा करने का समय उनके सामने खड़ा हो जायेगा.

हालांकि प्रेक्षक इस बात से भी इंकार नहीं करते कि लोकसभा चुनाव परिणाम विपक्ष की अपेक्षा के अनुरुप नहीं होने की स्थिति में वह नीतीश कुमार के भी खिलाफ ही होगा जिससे जदयू में भगदड़ भी मच सकती है.

(उपरोक्त लेखक के निजी विचार हैं)