लालू ने विकास का नैरेटिव ही बदल डाला
पटना (TBN – वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा)| लालू यादव (Lalu Prasad Yadav) एक विशेष कारण से अपनी नई प्रासंगिकता के साथ सामने आए हैं. 27 से बढ़कर अब 32 साल के सजायाफ्ता लालू ने दिमाग तो लगाया लेकिन अदालत ने उस साजिश को कामयाब नहीं होने दिया. लालू की इस हरकत का जिक्र हाल ही में प्रकाशित “द पीपुल्स लीडर” (“The People’s Leader” written by Vivekananda Jha) नामक पुस्तक में विस्तार से किया गया है. पुस्तक के लेखक विवेकानंद झा हैं जिन्होने भाजपा नेता सरयू राय के जीवन पर आधारित इस रचना (Composition based on the life of BJP leader Saryu Rai) में अदालत को गुमराह करने की लालू की कोशिश का भी जिक्र किया है.
स्वनामधन्य लालू यादव 1990 में मुख्यमंत्री बने और 1997 में सीधा जेल. चर्चित चारा घोटाले में शामिल होने और घोटाले को बढ़ावा देने के आरोप को सही पाए जाने पर अदालत से इस तथाकथित “गरीबों के मसीहा” को 32 वर्षों की सजा मिली है और जुर्माना भी लगाया गया है.
लेकिन लालू यादव की जो असल “क्वालिटी” है, पहली बार जेल जाने के बाद से ही उसका नैरेटिव वामपंथी स्टाइल में गढ़ना शुरू कर दिया गया. वामपंथियों ने तो देश का इतिहास ही बदलने की हिमाकत की थी, वैसे में लालू यादव का मामला बहुत मुश्किल नहीं था और इसलिए अपना नैरेटिव बदलने में लालू का साथ देने वाले आगे आए और सीबीआई ने जिसे”आदतन अपराधी” बताया तथा अदालत ने जिसे आर्थिक अपराध के लिए सजा सुनाई, उस लालू यादव की जेल यात्रा और राजनीति दोनों साथ-साथ चलती भी रही. यह सिर्फ बदले हुए नैरेटिव की वजह से मुमकिन हुआ.
इस नैरेटिव में लालू के अपराधी चरित्र को छिपा कर एक जुझारू नेता की छवि बनाई गई. गांव का एक भोला-भाला गरीब युवा जो महज 29 साल में सांसद बनकर एक नजीर पेश कर दी, सात साल के अपने मुख्यमंत्रित्व काल में गरीबों का मसीहा बन गया, उसे झूठे आरोपों में फंसाकर जेल भेजे जाने को बड़ी साजिश बता दिया गया. मजेदार बात यह कि यह नैरेटिव क्लिक भी कर गया. इससे अदालत पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन अपनी राजनीति को लालू ने जहरीला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
परन्तु गांव के भोले-भाले इस शातिर के कारनामें का जब पर्दाफ़ाश हुआ, उसके पहले चारा घोटाले को दबाने में लालू ने कितनी जुगत लगाई, यह कोई सरयू राय से पूछे. सरयू राय की जीवनी लिखने वाले विवेकानंद झा से कोई पूछे कि गांव के भोले-भाले इस शातिर ने अपने अपराध को छिपाकर सहानुभूति बटोरने के लिए भोली-भाली गरीब जनता को कितना मूर्ख बनाया और उनके वोटों को कैसे अपने हितों को साधने के लिए इस्तेमाल किया। मजेदार यह कि यह सिलसिला आज भी कमोबेश जारी है.
बहरहाल, सरयू राय अभी पूर्वी जमशेदपुर से विधायक हैं लेकिन 1995 में जब उन्हें घोटाले की भनक लगी, उस समय वह बिहार भाजपा के महासचिव थे. चारा घोटाले से जुड़े मामले का उन्हें पहला व्हिसिल ब्लोअर माना जाता है.
विवेकानंद झा ने “द पीपुल्स लीडर” नामक पुस्तक लिखी है जो सरयू राय के जीवन आधारित है. परन्तु, अपनी पुस्तक में श्री झा ने चारा घोटाले के मामले को अदालत में भी किस तरह से गुमराह करने की कोशिश की, इसका विस्तार से वर्णन किया है. यही वजह है कि बिहार के भ्रष्टतम मुख्यमंत्री की चारा घोटाले में संलिप्तता और कानून से खिलवाड़ करने की कोशिश का पर्दाफ़ाश करने वाली यह पुस्तक झारखण्ड में बड़ी दिलचस्पी के साथ पढ़ी जा रही है.
वैसे, लालू यादव को जब कोर्ट का चक्कर लगाना पड़ रहा था, उस समय दो बातों का जिक्र बहुधा हुआ करता था अदालत में अपनी पैरवी के लिए लालू ने एक से बढ़कर एक वकील रखे, पर विशेष न्यायाधीश एस के लाल के आगे किसी भी वकील की पैरवी काम नहीं आई तब उन नामी गिरामी वकीलों के बारे में कहा गया कि उनकी काबिलियत पर कोई शक नहीं था, उन्होने एक बेहद गलत आदमी की पैरवी की
दूसरी जो बात थी, वह थी लालू के लिए नौकरशाही की खीज. लालू ने मुख्यमंत्री बनने के साथ ही अधिकारियों को जलील करना शुरू कर दिया था. एक अदना सा राजद कार्यकर्ता भी अधिकारियों को लालू की धौंस दिखा देता था. लालू यादव की पकड़ काफी मजबूत होने के बाद भी जब वक्त आया तब यह नौकरशाही वर्ग ने भी बड़ी मुस्तैदी अपना फर्क निभाना. ऐसे ही एक अधिकारी थे वी एस दुबे, जिन्होंने सरयू राय की शिकायत पर बहुत तेजी से काम किया. वित्त आयुक्त वी एस दुबे ने शिकायत मिलने पर सभी जिलाधिकारियों और उपायुक्तों को आरोपों की जांच करने का निर्देश दिया. फिर तो यह घोटाला हर रोज मीडिया की सुर्खियों बनता रहा और चारा घोटाला हाई प्रोफ़ाइल बन गया.
(उपरोक्त लेख के निजी विचार हैं)