बिहार में ‘महागठबंधन और भाजपा’ में है ‘सेव और संतरे’ का झगड़ा
पटना (TBN – वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा की रिपोर्ट)| बिहार की राजनीतिक ऊर्जा के अपवार्ड ट्रेन्ड का एक महीना हो गया. राजनीतिक भाषा, तथ्य और कटाक्ष से परिपूर्ण है. सत्तारुढ़ महागठबंधन बनाम भाजपा (Ruling Grand Alliance Vs BJP) का राजनीतिक स्वाद अलग-अलग है और स्वादिष्ट भी है.
दो धुर विरोधी गुट बन चुके महागठबंधन और भाजपा की तुलना संतरे और सेव जैसे फलों से की जानी चाहिए. बिना छिलका उतारे संतरा एक होता है पर छिलका उतारते ही उसकी फलियां नजर आने लगती हैं. वह एक नहीं, कई होती हैं अलग-अलग. जबकि सेव स्वंय में एक पूर्ण फल है, यह संतरे की फलियों की तरह अलग-अलग नहीं होता.
ये दोनों फल पौष्टिक भी हैं. संतरा जहां मौसमी है तो सेव बारहमासी है. दोनों प्रशंसनीय हैं. जैसे, संतरे के बारे कहा जाता है कि “breakfast without orange juice is like a day without sunshine” तो सेव के बारे में कही जाने वाली बात लोगों की ज़ुबान पर रहती है, “one apple a day keeps the doctor away”.
दोनों फलों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं. पर रुपक के तौर पर इनका राजनीतिक प्रयोग भी नया नहीं है. 1980 में इंदिरा गांधी की जीत (कांग्रेसियों ने उस जीत को प्रचण्ड बताया था) में इसका प्रयोग हुआ था और तत्कालीन जनता दल का मजाक उड़ाया गया था. उसी जनता दल से छिटके हुए लालू और नीतीश कुमार हैं. पहले नीतीश अलग हुए समता पार्टी बनाकर और फिर चोरी से कलुषित होने पर लालू ने राजद बना ली.
अब संयोग देखिए. 1990 से 2005 के फरवरी तक लालू-राबड़ी सरकार ने अपनी जड़ कितनी मजबूत बना ली थी कि एक नहीं दो चुनाव कराने पड़े तब बिहार को जंगल राज से मुक्ति मिली. हालांकि लालू केन्द्र में रेल मंत्री जरूर थे, पर अपना राजपाट जा चुका था. 2010 के विधानसभा चुनावों में राजद को करारी शिकस्त मिली. उसके सत्ता में लौटने के आसार बहुत कम रह गए थे, तब 2015 में लालू को नीतीश कुमार ने जीवनदान दे दिया और दोनों ने मिलकर प्रचण्ड जीत दर्ज की.
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लेकिन इस बीच गुणात्मक रुप से परिस्थितियां काफी बदल गई थीं. लालू चारा घोटाले में सजायाफ्ता हो गए थे और नरेन्द्र मोदी की वजह से नीतीश ने भाजपा से नाता तोड़ लिया था और बिहार में महागठबंधन की सरकार थी. पर अन्दरखाने का माजरा दूसरा था. अपराध, भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता से समझौता न करने की नीतीश की नीति लालू को बर्दाश्त नहीं थी. इसी बीच आईआरसीटीसी का स्कैम भी उजागर हो चुका था जिसमें डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव नामजद थे. नीतीश कुमार के लिए यह मुश्किल घड़ी थी. बताते हैं कि नीतीश कुमार को निबटाने के लिए लालू ने एक चाल चली, पर भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व तैयार नहीं हुआ और महज ढाई साल बीतते-बीतते नीतीश फिर से भाजपा से मिल गए. बिहार में सरकार बदली, सीएम वही रहे.
लेकिन राजद से मिलने का नीतीश कुमार के प्रयोग ने उनकी साख पर बट्टा लगा दिया था. फिर 2020 में हुए विधानसभा चुनावों ने नीतीश कुमार की कमर को कमजोर कर दिया. नीतीश कुमार भाजपा पर शक करने लगे थे. इसका नतीजा यह हुआ कि फिर लगभग ढाई साल बाद नीतीश कुमार ने राजद का दामन पकड़ लिया और कुल सात दलों के महागठबंधन सरकार में मुख्यमंत्री हैं.
मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में एक तरफ सात दलों का महागठबंधन है तो दूसरी तरफ अकेली भाजपा. महागठबंधन के मुखिया नीतीश कुमार नरेन्द्र मोदी से अपना पुराना हिसाब चुकता करना चाहते हैं. सात दलों की ताकत एक तरफ और लोगों का भाजपा पर अपना भरोसा एक तरफ. नीतीश कुमार की प्राथमिकता तय है. वह नरेन्द्र मोदी को सबक सिखाना चाहते हैं. इसकी तीव्रता कुछ ऐसी है मानो 2022 के बाद सीधा 2024 ही आयेगा. यह जो समय है लगभग डेढ़ साल का, तबतक गंगा में कितना पानी बह जायेगा, यह कोई नहीं जानता. इसलिए सेव और संतरे की जो लड़ाई बिहार में होनी है, वह दिलचस्प होगी.
इधर, भाजपा से रिश्ता तोड़ने के नीतीश कुमार के फैसले की कड़ी आलोचना करते हुए जदयू समाज सुधार सेनानी प्रकोष्ठ के पूर्व प्रवक्ता राजीव कुमार ने इसे कुछ इस तरह बयां किया है, “टूटकर बिखरना उनकी फिदरत है, हम तो पूरे कायनात को समेंट कर चलते हैं.”