बिहार को कितना सुरक्षित रखा है लालू-नीतीश ने !
पटना (TBN – वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा की रिपोर्ट)| नरेन्द्र मोदी (PM Narendra Modi) को सत्ता से बाहर करने में लगा इंडी अलायंस (Bihar chapter of I.N.D.I. Alliance) का बिहार चैप्टर कब टूट जायेगा, कहा नहीं जा सकता. लेकिन बिहार के पिछडे़पन और विकास की बात होती है तो सबसे पहले लालू-नीतीश के चेहरे नजर आते हैं. लालू ने पिछडे़पन के नाम पर और नीतीश ने विकास के नाम पर जिस तरह से बिहार को अपनी मुट्ठी में रखा, उसका कोई उदाहरण देना ही मुश्किल है. बिहार में सरकार बदल जाती है सीएम नहीं बदलता, नीतीश कुमार ने यह दिखाया तो लालू ने यह बताया है कि भ्रष्टाचार कितना व्यापक हो सकता है और कैसे सजायाफ्ता होने के बाद भी खुले तौर पर सरकार चलाई जा सकती है.
बिहार में पिछले 1990 से समाजवादी सरकार है. प्रयोग ऐसा कि अभी तक जारी है. लालू के जंगल राज (Lalu’s Jungle Raj) का सामाजिक दुष्प्रभाव इतना है कि सरकार बिहार को पिछड़ा बताना नहीं भूलती और विकास के पुख्ता दावे भी करती है. इस राजनीति की सामाजिक सच्चाई तेज गति से हो रही जनसांख्कीय बदलाव (demographic change) है जिससे बिहार की सुरक्षा खतरे में है.
अल्पसंख्यक समाज को सबसे वर्ग बताया
जब बिहार को सुरक्षित रखने के संदर्भ में लालू-नीतीश के राजनीति की बात होगी तब बहुसंख्यक समाज को जाति में बांट देने का खेल सामने आता है. इसकी आवश्यकता इसलिए है कि बहुसंख्यक समाज को जातियों में बांट कर सरकार ने अल्पसंख्यक समाज को सबसे बड़ा (17.7%) वर्ग बता ही दिया है. हालांकि जातीय गणना बिहार में मौजूद रोहिंग्याओं और बांग्लादेशियों की संख्या (Number of Rohingyas and Bangladeshis present in Bihar) पर मौन है. सीमावर्ती जिलों में डेमोग्राफिक चेंज में आई तेजी पर सरकार की चुप्पी कितना गम्भीर परिणाम ला सकती है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2047 तक भारत को इस्लामिक स्टेट बनाये जाने की पीएफआई (PFI) अपनी साजिश को बिहार में ही अंजाम देता रहा और बिहार सरकार (Bihar Government) को इसकी भनक तक नहीं थी. केन्द्रीय एजेंसी ने इसकी जानकारी बिहार पुलिस को दी और तब इसका भण्डाफोड़ हुआ और अंततः पीएफआई को प्रतिबंधित कर दिया गया. लेकिन सरकार के स्तर पर ऐसा ही दिखाया गया कि सबकुछ सामान्य है, जबकि बिहार जनसांख्कीय बदलाव की गति तेज है.
तुष्टीकरण का नाजुक केन्द्र बन रहा बिहार
सरकार इसे सौहार्द्र बताती है जिससे बिहार तुष्टीकरण का ऐसा नाजुक केन्द्र बनता जा रहा है जिसकी जिम्मेदारी सरकार नहीं लेगी. लेकिन जातियों में बांटकर समाज और उसके तानेबाने को छिन्न-भिन्न कर ऐसी स्थिति पैदा कर दी जायेगी जिससे जनसांख्कीय बदलाव जैसे गम्भीर मसले पर ध्यान नहीं जा सके और तुष्टीकरण की राजनीति परवान चढ़ती रहे.
राजद-जदयू की आपसी खींचतान जारी
यह बिहार का ऐसा गम्भीर पहलू है जो सरकार की प्राथमिकता में नहीं है. सरकार में शामिल राजद-जदयू की आपसी खींचतान जारी है जिसकी मिसाल बीते 26 अक्टूबर को दिखाई पड़ी. उस दिन बिहार के पहले सीएम श्रीकृष्ण सिंह (First CM of Bihar Shri Krishna Singh) की जयंती थी. इस मौके पर काग्रेस ने नीतीश कुमार और लालू यादव दोनों को आमंत्रित किया था. लालू चीफ गेस्ट के तौर पर आमंत्रित थे, नीतीश कुमार वहां नहीं गए. लेकिन जयंती के मौके पर सदाकत आश्रम में तो गजब हो गया. मौके पर मौजूद कांग्रेस के बिहार प्रभारी सचिव अजय कपूर ने तो सारी हदें पार करते हुए चारा घोटाले में सजायाफ्ता लालू को बिहार का पिता (father of bihar) बता दिया. कांग्रेस की ऐसी घिनौनी संस्कृति कोई नयी नहीं है. लालू ने भी कुछ नहीं कहा क्योंकि सजायाफ्ता होने की सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता. लेकिन अगर अजय कपूर ने लालू की राजनीतिक ताकत को देखते हुए ऐसा बयान दिया तो यह सिर्फ लालू की चापलूसी भर नहीं है. कांग्रेस अभी सरकार में शामिल है. इसके पूर्व 2000 में भी वह सरकार में शामिल थी जब लालू के प्रयोग के तहत धर्म पत्नी राबड़ी देवी (Rabri Devi) दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी. हालांकि राबड़ी देवी का दुबारा मुख्यमंत्री बनना उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना यह कि बिहार की राजनीति किस तरह लालू की मुट्ठी में थी.
लालू – नीतीश दोनों के विचार भी पिछडे़ !
लालू और नीतीश दोनों पिछडी़ जाति के हैं और दोनों शिक्षित भी हैं. पर, दोनों की राजनीति का स्याह सच यह है कि जाति के साथ-साथ दोनों के विचार भी पिछडे़ हैं. एक को सत्ता में रहते हुए लूट पसंद है और दूसरे को सत्ता में बने रहने के लिए विचारधारा की राजनीति से कोई वास्ता नहीं है. अभी दोनों साथ हैं और कोशिश यही है कि राजनीति उनकी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल न जाए. जाति आधारित गणना (caste based census) इसकी ताजा मिसाल है. इस बात की पूरी सम्भावना है कि आगामी विधानसभा सत्र में जाति आधारित गणना को लेकर सरकार कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाये. जबकि इसमें जोखिम भी है और इसलिए बहुत मुमकिन है कि गणना का भरपूर राजनीतिक फायदा उठाना ही सरकार की मंशा हो.