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प्लुरल्स, नाच न जाने ……?

पटना (वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा की खास रिपोर्ट) | प्लुरल्स <Plurals> पार्टी की अध्यक्ष पुष्पम प्रिया चौधरी (पीपीसी) भी क्या लोकतंत्र का चीर हरण करने वालों के झुंड में शामिल हो गई है? यह उस जानकारी से आभासित होता है जिसे उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर डाला है. उन्होंने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर यह जानकारी दी है कि विधानसभा के चुनाव के पहले चरण में उनकी पार्टी के 61 उम्मीदवारों में से 28 उम्मीदवारों के नामांकन पत्र रद्द कर दिए गए.

इस जानकारी के बाद उनकी जो प्रतिक्रिया सामने आई वह अत्यंत विडंबना पूर्ण है. उन्होंने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लिखा, “लोकतंत्र अमर रहे”. प्रेक्षक इस शब्दावली को उनका कटाक्ष बता रहे हैं, जबकि यह उनकी पात्रता पर गंभीर सवाल पैदा करता है. नामांकन पत्र स्वीकार करना या रद्द करना संवैधानिक संस्था का दायित्व है, आमलोगों का नहीं. लेकिन लोकतंत्र के नाम पर यदि आम लोगों को प्रोत्साहित करने की उनकी मंशा है तो इसके पीछे उनके खौफनाक इरादे भी हो सकते हैं. सरकार बनाने के बाद क्या वह संवैधानिक संस्थाओं को समाप्त कर देने की मंशा रखती हैं?

होना तो यह चाहिए कि पहले चरण के चुनाव में जो 33 उम्मीदवार मैदान में रह गए हैं, नामांकन पत्र रद्द होने के फलस्वरूप वह लोगों को इतना प्रेरित कर दें कि उनके सभी 33 उम्मीदवार जीत जाएं. उच्च शिक्षा प्राप्त पीपीसी ने अपनी गतिविधियों और अपने फेसबुक पोस्ट से अंधेरे में एक किरण बनकर धमाका किया था, लेकिन महक तकनीकी कारणों से उनके 28 उम्मीदवारों का नामांकन पत्र रद्द हो जाने की कुंठा भारतीय लोकतंत्र क्यों झेले? पीपीसी जैसी संवेदनशील महिला से ऐसी शब्दावली की उम्मीद तो बिल्कुल ही नहीं की जा सकती है.

वैसे भी 61 में से 28 उम्मीदवारों का छट जाना कुल संख्या का 49.43 प्रतिशत है, जिसे किसी भी रूप में छोटी बात नहीं कही जा सकती. जरूरत इससे सबक लेने की है ताकि बचे हुए चरणों में नामांकन पत्र भरने में कोई चूक ना हो.

कहा भी गया है कि भाषा की उत्कृष्टता बड़े से बड़ा परिवर्तन करने में सक्षम है. उसके समक्ष लोकतंत्र के लिए कोढ़ हो चुके जातिवाद, तुष्टीकरण, परिवारवाद, शराब, पैसा जैसे कारकों को ध्वस्त होने में देर नहीं लग सकती. जब उद्देश्य स्पष्ट हो तो संयम भी आवश्यक है.