महागठबंधन के मुकाबले बिहार में किस लेवल पर है भाजपा ?
पटना (TBN – वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा की खास रिपोर्ट)| बिहार में गठबंधन की राजनीति (Alliance politics in Bihar) बेहद दिलचस्प है. एकदलीय वर्चस्व का समापन लालू राज से शुरू हुआ और पिछले 1990 से जारी है. एक ताकतवर नेता के रूप में लालू यादव (Lalu Yadav) का उभार तो हुआ, पर अपने बूते लालू कभी सरकार नहीं बना पाए. दूसरे दलों के सहारे बनी सरकार में राजनीति (संकीर्णता, भ्रष्टाचार, गुण्डागर्दी) नये शिखर छूती गई और बिहार पीछे छूटता गया. यही बात नीतीश कुमार के साथ भी रही. उन्हे भाजपा का पल्लू पकड़ना पडा़. 2005 से अबतक तो नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने इतिहास रच दिया. उनके दौर में सरकार बदल गई, सीएम नहीं बदला. जबकि उनको संकीर्णता, भ्रष्टाचार और गुण्डागर्दी के खिलाफ माना जाता था.
लालू-नीतीश राज (Lalu-Nitish Raj) के कालखण्ड की कीमत बिहार चुकाता आ रहा है. लेकिन, 2005 के फरवरी मे बिहार विधान सभा का जो पहला चुनाव हुआ, स्वर्गीय रामबिलास पासवान (Late Ram Bilas Paswan) ने चाहा होता तो आज बिहार की तस्वीर ही दूसरी होती ! पर केन्द्र की राजनीति उनकी पहली प्रथमिकता थी, इसलिए हंग असेम्बली को देखते हुए राष्ट्रपति शासन लगा, अक्टूबर-नवम्बर में फिर चुनाव हुए, नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी, सरकारें बदलती रहीं, नीतीश बाबू सीएम बने रहे.
नीतीश अपने राजनीतिक अवसान की ओर अग्रसर
लेकिन यह दौर महज राजनीति का नहीं रहा. इस दौरान राजनीतिक विरोध (राजद) और परिपक्व हुआ तो राजनीतिक हित साधने में नीतीश कुमार ने भाजपा को लगभग अपनी चेरी ही बनाकर रखा. और, इस दौर में देखते-देखते चार चुनाव हो गए तब कहीं जाकर राजनीतिक अन्तर्विरोध ज्यादा स्पष्टता से सामने आना शुरू हुए. अब स्थिति यह है कि लालू यादव का पूरा परिवार (भ्रष्टाचार में लिप्त होने के कारण) कानूनी जद में है और नीतीश कुमार अपने राजनीतिक अवसान की ओर अग्रसर हैं.
भाजपा की तैयारी कैसी है ?
इस घोर राजनीतिक अन्तर्विरोध से लालू यादव और नीतीश कुमार दोनों की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं. और यह मुश्किल तब बनी है जब दोनों महागठबंधन का हिस्सा हैं. ऐसे में बिहार के भविष्य को देखते हुए यह समझना जरूरी है कि दोनों के अन्तर्विरोध का परिणाम किस रूप में सामने आता है और उस स्थिति में नेतृत्व के लिए भाजपा की तैयारी कैसी है ?
2015 और 2020 के विधानसभा चुनाव भाजपा और नीतीश कुमार दोनों के लिए खासी अहमियत रखते हैं. 2015 में महागठबंधन (लालू-नीतीश और अन्य दल) ने भाजपा को धूल चटायी थी. उस करारी हार के बाद भाजपा को बेशक नरेन्द्र मोदी का मजबूत सहारा मिला और भाजपा सदमे से उबरने लगी, लेकिन राज्य स्तरीय चुनावों में अकेले जिस तरह चिराग पासवान ने 2020 में लोजपा का दमखम दिखाया और नीतीश कुमार को धूल चटाई, वह तो सीएम की ताबूत का आखरी कील बन गया. नीतीश कुमार उस टीस से अभी तक उबर नहीं पाए हैं और पिछले साल फिर से महागठबंधन में शामिल होने के बाद अब अपनी सियासत के आखरी पादान पर पहुंच गए हैं.
बिहार की इस पृष्ठभूमि में 2024 का लोकसभा चुनाव और 2025 का विधानसभा चुनाव दोनों महत्वपूर्ण हैं. बल्कि विधानसभा चुनाव की अहमियत लोकसभा चुनाव से इस रूप में ज्यादा है कि बिहार के उज्जवल भविष्य की खातिर क्षेत्रीय दल राजद और जदयू दोनों से बिहार मुक्त हो और इसलिए लोकसभा चुनाव में इन दोनों दलों की ताकत को इतना कमजोर कर दिया जाय कि विधानसभा चुनावों के समय इनका इकबाल बचा ही न रहे.
वोट ट्रांसफरेबिलिटी में एनडीए आगे
बेशक यह कठिन है, असम्भव नहीं है. महागठबंधन के अन्तर्विरोध इतने तीखे हैं कि भाजपा और एनडीए के लिए यह लक्ष्य प्राप्त करना सम्भव हो सकता है. बिहार एनडीए में भाजपा के सहयोगी दलों में लोजपा (दोनों गुट), उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा और जीतन राम मांझी की हम पार्टी शामिल है. महागठबंधन में राजद, जदयू, कांग्रेस के अलावा वाम मोर्चा (भाकपा, माकपा, भाकपा-माले) शामिल है. महागठबंधन की दो बडी़ कमजोरियां हैं. पहला उनका अपना-अपना राजनीतिक हित है जिसमें राजद सबसे आगे है. और दूसरा इसी से जुडा़ अन्तर्विरोध है जिसका सीधा असर वोटों के ट्रांसफर पर पड़ता है. संयोग से यह स्थिति एनडीए में नहीं है और वोट ट्रांसफरेबिलिटी में यह महागठबंधन को काफी पीछे छोड़ सकता है. इसमें लोजपा का स्थान पहले नम्बर पर है.
महत्वपूर्ण यह है कि बिहार एनडीए को लेकर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कैसी रणनीति अपनाता है. 2005 के फरवरी में हुए चुनाव को भाजपा नेतृत्व यदि ध्यान में रखे और चिराग पासवान को स्पेस दे तो लोकसभा चुनाव को क्लीन स्वीप कर लेना एनडीए के लिए टेढी़ खीर नहीं होगा. इस सिलसिले में लोजपा (रामबिलास) के बिहार उपाध्यक्ष अशरफ अंसारी ने बताया कि बिहार की बेहतरी के लिए नीतीश-लालू का सत्ता से बाहर होना जरूरी है.