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जनवादी लेखक संघ ने किया अफसानानिगार हुसैनुल हक़ की श्रद्धाजंलि सभा का आयोजन

पटना (TBN – अखिलेश्वर सिन्हा की रिपोर्ट)| जनवादी लेखक संघ की पटना ईकाई के द्वारा मशहूर उपन्यासकार हुसैनुल हक़ (Hussainul Haque) की याद में श्रद्धाजंलि सभा का आयोजन उर्दू अकादमी (Urdu Academy Patna) में किया गया. श्रद्धाजंलि सभा में पटना के उर्दू-हिंदी के साहित्यकार, अदीब, छात्र और समाज के विभिन्न तबके के प्रतिनिधि थे.

सभा की शुरुआत करते हुए जनवादी लेखक संघ, पटना ज़िला इकाई के संयुक्त सचिव ज़फर इक़बाल ने इस बात पर ज़ोर दिया कि उर्दू और हिंदी के लेखकों को साथ में कन्धा से कन्धा मिलाकर काम करने की ज़रूरत है.

सफदर इमाम क़ादरी ने हुसैनुल हक़ वे बारे में अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा ” हुसैनुल हक़ का इल्मी पाया काफी बुलन्द था. हुसैनुल हक़ का नॉवेल अमावस की रात सहित अन्य नौवलों में राजनीति के साथ-साथ रूहानियत के मसलों को भी सामने लाते हैं. 1990 के बाद हमारे इल्मी कामों के मौजूं बदल गए थे. हम लोगों ने जम्हूरी इदारे का जो ख्वाब देखा था उसमें जगह-जगह छेद हो गए थे. मैं उन खुशनसीब लोगों में था जिन्हें उनकी कहानी का पाठ हमारे घर मे सुनाई जो बाद में ‘नींव की ईंट’ के नाम से जानी गई. जो नई दुनिया आ रही थी उसमें इस मौजूं की जरूरत थी. जंगे आज़ादी के दौर में जिस तरह फ़िरकावारियत को समझ रहे थे अब का फिरकावरियत क्या पुराने तरह का है? उसमें क्या फर्क रहा है.

उन्होंने कहा कि हुसैनुल हक़ के इंसानी रिश्तों की नाज़ुक कहानी ‘अनहद’ है. हमारे जमाने के बड़े अफसाना निगारों में शामिल थे 1970 के बाद बिहार और गैर बिहार का एक झगड़ा भी होने लगा था दूसरे प्रांतों के मुस्सनिफ्फीन और नकक्काद बिहार से लिखने वालों को महत्व नहीं दे रहे थे लेकिन हुसैनुल हक़ ने बताया कि बिहारी सिर्फ ग़लत उर्दू नहीं लिखते हैं वे चुस्त व शायराना उर्दू भी लिख सकते हैं. हमारे बीच वो नहीं हैं लेकिन उनकी तहरीरें मौजूद रहेंगी. हमारे अहद में ऐसा अफसानानिगार था जो अपने बुजुर्गों का हमरुतबा था.”

फखरुद्दीन आरफ़ी ने अपने संबोधन में कहा “1970 के बाद जिनलोगों ने शिनाख्त कायम किया उसमें हुसैनुल हक़ प्रमुख थे. जब उनका पहला नॉवेल मंजर-ए-आम हुआ तो उन्होंने उसकी कॉपी मुझे दी थी. उनका जिस्म भले हमारे बीच न हो लेकिन उनके जज़्बात और अहसासात हमारे साथ हैं. 1992 में बाबरी मस्ज़िद के बाद हमारे सोचने समझने का तरीका बदला. हुसैनुल हक़ के यहां तकीसीम-ए-मुल्क तथा बाबरी मस्जिद का दर्द दोनों उभर कर आया था. उर्दू अदब में तरक़्क़ी पसन्द तहरीक ने बगावती तेवर पैदा किया जो पहले उर्दू अदब में नहीं देखा गया था. वह उर्दू अदब में संगे-मील की तरह है. तरक़्क़ी पसन्द तहरीक की जिद में जदीदियत आया जिसके सबसे बड़े अलम्बरदार थे शम्सुर्रहमान फारूकी. जदीदियत हो या तरक़्क़ी पसन्द तहरीक यदि तरक्कीपसन्दगी न हो तो वह कामयाब नहीं हो सकता. अच्छा अदब वह होता है जो अपने दौर को अभिव्यक्त करता है. आज हिंदुस्तान की तारीख में इतनी बेचैनी कभी भी न थी. जो अदब चाहे अफसाना हो, नज़्म हो या ग़ज़ल हो वह आपको अपनी स्थिति से अवगत कराता है. अदब में समाजियात न हो तो उसका कोई मतलब नहीं.”

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ए. एन कॉलेज के उर्दू विभाग के मणिभूषण ने कहा “हुसैनुल हक़ से मेरी मुलाक़ात 2005 में हुआ था जब वे पटना में एक गोष्ठी में आये थे. मगध विश्विद्यालय में भी जाने का मौका मिला जहां उनसे मुलाकात हुई थी।.”

डॉ ए. के अल्वी ने श्रद्धाजंलि सभा में हुसैनुल हक़ को याद करते हुए कहा “फिक्शन के साथ साथ सूफी के साथ भी उनका लगाव था. ये दीनी तालीम के साथ – साथ आलमी तालीम भी ली थी. मेरे तालुक्कात उनसे तबसे हैं जब वे नौकरी में भी न थे. हुसैनुल हक़ का दिल बड़ा था. बहुत कम शायर या अदीब ऐसे होते हैं जिनका दिल जमीनी सतह पर रहने वाले लोगों के लिए धड़कता है. हुसैनुल हक़ ऐसे लोगों में थे.”

प्रगतिशील लेखक संघ के उपमहासचिव अनीश अंकुर ने कहा “हुसैनुल हक़ से मेरी भेंट 2005 में हुई थी. बाद में 2008 में गया में हुए पुस्तक मेला में हुई जब उनका कहानी पाठ आयोजित किया गया. पिछले वर्ष अफसह -जफर की स्मृति में उनका व्याख्यान आयोजित किया गया था जिसमें हुसैनुल हक़ ने उनके महत्व को रेखांकित किया था. समाज के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बचाने को लेकर काफी चितिंत रहा करते थे.”

पत्रकार अनवारुल होदा ने अपने संबोधन में कहा “हुसैनुल हक़ अदीबों के साथ अदीब जबकि बच्चों के साथ बच्चे बन जाते थे. साहित्य अकादमी ने उन्हें सम्मान देकर खुद को सम्मानित किया है.”

मगध महिला कॉलेज के सुहैल अनवर ने कहा “हुसैनुल हक़ दरवेश की तह थे. एक हाथ से सहयोग किया करते थे तो दूसरों को खबर तक नहीं होने देना चाहते थे.”

शकील सासारामी ने उनके साथ के अपने संस्मरणों को साझा करते हुए कहा “वे मेरे बड़े भैया के लँगोटिया यार थे. हमारा हमेशा हौसला अफजाई किया करते थे. पटना में प्रोग्रामों में मिलते थे तो बड़े उत्साह से मिलते थे.”

पटना वीमेंस कॉलेज में उर्दू के अध्यक्ष अब्दुल हमीद वासी ने कहा” किसी बात पर लेक्चर देना आसान है अमल में उतारना मुश्किल है. हुसैनुल हक़ उसी क़िस्म के शख़्स.”

हुसैनुल हक़ की पुत्री ऐमन निशात ने अपने पिता को याद करते हुए कहा “मेरे बाबा के कई पहलु हैं. वे सूफी स्कॉलर थे, स्टोरी राइटर थे, क्रिटिक थे. बाबा को देर रात तक पढ़ने की आदत थी. उर्दू अकादमी में मैं तब आई थी जब बाबा सदारत कर रहे थे. एक बार उनकी ओर से मैं अवार्ड ग्रहण करने आई थी क्योंकि तब वे अमेरिका में थे. जब मेरी बड़ी बहन के शादी हुई तो उन्होंने कार्ड उर्दू और हिंदी में छपवाया. जबकि हमलोगों के यहां उर्दू और अंग्रेज़ी में छपवाने का चलन था. सूफीज्म में रंग और दीवाली दोनों मिलता है. मेरे बाबा सच्चे सेक्युलर तथा डेमोक्रेट थे.”

श्रद्धान्जलि सभा में खालिद इबादी, नाशाद औरँगाबादी ने हुसैनुल हक़ पर लिखी अपनी कविता का पाठ किया. श्रद्धाजंलि सभा का संचालन जनवादी लेखक संघ के घमंडी राम ने किया. श्रद्धाजंलि सभा में प्रमुख लोगों में थे अरुण मिश्रा, जफर इकबाल, आसिफ़ इकबाल, अशोक गुप्ता.