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‘लौंडा नाच’ शब्द भिखारी ठाकुर के लिए गाली – रेशमा

पटना (TBN – The Bihar Now डेस्क)| बिहार सरकार द्वारा ‘लौंडा नाच’ शब्द को ‘लोकनाच’ में बदलाव करने के लिए ट्रांसजेंडर समाजसेवी व राष्ट्रीय ट्रांसजेंडर परिषद (National Council for Transgender Person) की सदस्य रेशमा प्रसाद (Reshma Prasad) ने सरकार का साधुवाद व्यक्त किया है. उन्होंने कहा कि जिन शब्दों को गालियों के रूप में उपयोग किया जा रहा हो, उसे बिहार की लोक संस्कृति कैसे कही जा सकती है.

भिखारी ठाकुर के रंगकर्म पर अनुसंधान करने वाले विशेषज्ञ जैनेंद्र ने भी इस पर अपनी खुशी जाहिर करते हुए कहा कि भिखारी ठाकुर की नाट्य मंडली कभी इस नाम से थी ही नहीं. बल्कि उनके यहां जो नर्तक कार्य करते थे, उन्हें इस नाम से बुलाने पर भिखारी ठाकुर विरोध करते थे.

रेशमा ने रंगकर्मियों का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि सभी बुद्धिजीवियों रंगकर्मियों का बहुत-बहुत अभिनंदन है जिन्होंने बिहार की लौंडा नाच को ‘लोकनाच’ रुप में समझने के लिए बिहार सरकार को राजी कर दिया. भिखारी ठाकुर को समझने वाले इसको जरूर समझेंगे क्योंकि इसमें स्त्रियोंचित पुरुषों को मौके दिए जाते थे ना कि समलैंगिक व्यक्तियों को.

रेशमा ने कहा कि सभी समलैंगिक कलाकारों को अपने-आप को समझने की जरूरत है ताकि वे अपनी पहचान को सामने ले आए. समाज सहर्ष उन्हें और उनकी कला को स्वीकार करेगा. रेशमा ने कहा कि समलैंगिक कलाकार पुरुष के प्राइवेट पार्ट के नाम पर कोई महोत्सव करने का प्रयास ना करें. यह उनके लिए उपयोग का वस्तु या साधन हो सकता है, परंतु यह बिहार की संस्कृति और संस्कार नहीं हो सकती है. बिहार की संस्कृति और संस्कार या भारत के संस्कृति और संस्कार पुरुष से महिला होना ट्रांसजेंडर व्यक्ति का होना होता है. वह चाहे कोई भी व्यक्ति हो अपने स्त्री भाव को मंचों पर या जीवन में या कहीं पर भी स्वीकार करते हैं वह ट्रांसजेंडर व्यक्ति होते हैं.

रेशमा ने कहा कि यह समलैंगिक कलाकारों पर के ऊपर निर्भर करता है कि वह इसे स्वीकार करें या ना करें क्योंकि यह उनके निजी जीवन का हिस्सा है. परंतु इस निजी जीवन के हिस्से को वे ऐसे हद तक अंजाम देंगे, यह बिहार कभी स्वीकार नहीं करेगा. हां, कुछ लोग जानकारियों के अभाव में उनके साथ खड़े हो सकते हैं या उनसे समलैंगिक संबंधों के स्वीकार्यता के आधार पर खड़े हो सकते हैं, परंतु कला पारखी और साहित्यकार किसी भी स्थितियों में कभी उनके साथ खड़े नहीं होंगे. क्योंकि इस ‘प्राइवेट पार्ट’ शब्द को सामंतवादी और पितृ-सत्तावादी व्यक्तियों के द्वारा महिलाओं के अधिकार रोकने के लिए उच्चारित किया जाता रहा है. इसमें परिवर्तन के लिए नए समाज को आगे आने की आवश्यकता है, ना की प्राइवेट पार्ट के नाम से महोत्सव आयोजित करने की.

उन्होंने कहा कि भिखारी ठाकुर को तभी सच्ची श्रद्धांजलि मानी जाएगी जब हम सब उनकी आत्मा की शांति के लिए महिलाओं के अधिकार को मजबूत करने में आगे बढ़कर आवाज उठाएं. हमारी लोक कला ‘क्रॉसड्रेसर कला’ हो सकती है ना कि ‘लौंडा नाच’.

लौंडा नाच में एक बिंदु का परिवर्तन होने से इसका उच्चारण बदल जाता है. वैसे यह लौंडा नाच क्या है, इसे लोग जानते हैं और इसे परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है. रेशमा ने कहा कि आज जितने भी रंगकर्मियों और शिक्षाविदों से इस विषय पर बात की गई, सबने इसका पुरजोर विरोध किया और सरकार से अनुरोध किया कि इसे गालियों का महोत्सव नहीं बनाएं.