न्याय एवं न्यायपालिका
न्याय की परिभाषा : ‘न्याय’ मात्र एक शब्द नहीं है, बल्कि निर्जीव और सजीव, दोनों को अपने अस्तित्व में रहने के लिए अन्य तत्त्वों, यथा अन्न, पानी, हवा, प्रकाश आदि की तरह एक आवश्यक एवं व्यापक तत्त्व है. आज इस तत्त्व की जितनी आवश्यकता है, उससे अधिक किसी दूसरे तत्त्व की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि रोटी-कपड़ा-मकान और विज्ञान द्वारा प्राप्त कराई गई सारी सुविधाओं के होते हुए भी न्याय तत्त्व के अभाव में सजीव, निर्जीव और मनुष्य का अस्तित्व में रहना संभव नहीं है. आज इसी न्याय तत्त्व के अभाव में हिंसाएँ, हत्याएँ, बलात्कार की घटना, यहाँ तक कि हमारे ही लोग नक्सली, उग्रवादी, आतंकवादी प्रवृत्ति के होते जा रहे हैं. इन्हें इसी न्याय तत्त्व की जरूरत है, न कि न्यायालयों से प्राप्त कराया गया न्याय, जो वस्तुतः न्याय है ही नहीं, बल्कि पक्षकारों को सुनकर कानून की व्याख्या कर किया गया एक निर्णय मात्र है. संभवतः हम लोग न्याय और निर्णय में अंतर नहीं समझ पा रहे हैं. अगर समझ भी रहे हैं तो प्रकट नहीं कर पा रहे, हैं. फलस्वरूप न्यायालय के निर्णय को भी हम न्याय, जो वस्तुतः न्याय है ही नहीं, की संज्ञा देते आ रहे हैं. आज आवश्यकता है कि न्यायपालिका द्वारा दिए गए निर्णय को न्याय में परिवर्तित किया जाए. आज राजनियम, चाहे वह संविधान के रूप में हो या संविधान के तहत संसद् एवं राज्य की विधानसभाओं द्वारा पारित कानून हो, उसी की कसौटी पर न्याय निर्णय देते हैं एवं आम आदमी को इस निर्णय से भ्रमित करते हैं. जिस न्याय तत्त्व की बात की जा रही है, उसका संबंध इन राजनियमों से कदापि नहीं है, बल्कि इस न्याय तत्त्व का संबंध व्यक्ति, चाहे वह किसी उच्च-से-उच्च पद पर आसीन हो, की Morality, Ethics एवं Honesty से संबंधित है. आज इन्हीं उच्चपदधारियों की Morality, Ethics एवं Honesty को सुदृढ करने की आवश्यकता है. देखा जा सकता है कि व्यक्ति उच्च पद पर अपने को स्थापित करने में सक्षम तो हो जाता है, किंतु ऐसे उच्च पद पर आसीन होने के पश्चात् भी अपने व्यक्तित्व एवं पक्षपातपूर्ण रवैयों से ऊपर नहीं उठ पाता है. हमारे देश के जजों के साथ भी कुछ ऐसा ही देखा जा रहा है, जिसके अनेक उदाहरण हैं
ये उदाहरण जिला न्यायालयों से लेकर उच्चतम न्यायालय के कुछ जजों के विरुद्ध लगते हुए आरोपों से संबंधित हैं एवं ये सारे उदाहरण इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि उच्च पद पर आसीन होने के पश्चात् भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व से ऊपर नहीं उठ रहा है. आज आवश्यकता है कि व्यक्ति की Morality, Ethics एवं Honesty का विकास हो. जब तक हम स्वयं Morality, Ethics एवं Honesty रूपी तत्त्वों को अपने आप में स्थापित नहीं करेंगे, हम जैसे-तैसे मरने तक जी सकते हैं, लेकिन अपने को हर स्थान पर और हर समय असुरक्षित पाएँगे.
न्यायपालिका के संदर्भ में न्याय
न्यायपालिका से न्याय नहीं वरन् एक निर्णय की प्राप्ति होती है, जो पक्षकारों की बुद्धिमत्ता एवं राजनियमों के दाँवपेंच पर आधारित होता है. आवश्यकता है कि न्यायालयों के न्याय निर्णय को न्याय तत्त्व, जिसके बिना किसी का जीवन सुरक्षित नहीं रह सकता, के करीब लाया जाए और एक ऐसी न्यायपालिका का गठन किया जाए जो कागजी न्याय नहीं, बल्कि वास्तविक न्याय देने में समर्थ हो. इस तरफ आम जनता या इसके चुने हुए प्रतिनिधि, जो केंद्र व राज्यों में सरकार बनाते हैं, का बिल्कुल ही ध्यान नहीं है. संभवतः आम जनता द्वारा चुने गए इनके प्रतिनिधि अपनी कुरसी, पदों आदि की सुरक्षा में ही व्यस्त हैं, क्योंकि इन्हें अपने पद, कुरसी आदि सदा असुरक्षित प्रतीत होते हैं. आम जनता के प्रतिनिधियों को इस व्यक्तिगत सुरक्षा की मानसिकता से ऊपर उठकर वास्तविक न्याय की खोज में लगना होगा और उसे आम जनता, जिसके द्वारा वे चुने जाते हैं, को उपलब्ध कराना होगा.
आज प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह एक साधारण कहा जानेवाला व्यक्ति हो या उच्च-से- उच्च पद पर आसीन व्यक्ति हो, देश की न्यायपालिका से पूर्ण तरह से असंतुष्ट है, किंतु साधारण व्यक्ति तो किसी अदृश्य भय के कारण न्यायपालिका की सच्चाई प्रकट करने की बात तो दूर, उस ओर देखना भी नहीं चाहता है एवं न्यायपालिका के अच्छे-बुरे कार्यकलापों को नजरअंदाज कर देता है. दूसरी तरफ उच्च पदासीन व्यक्ति, चाहे वे सरकार में हों या उच्च एवं उच्चतम न्यायालय के जज हों, अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए वर्तमान न्यायपालिका में सुधार की सतही बात ऊपर-ऊपर करते हैं, न कि वास्तविकता में.
उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश एवं मुख्यमंत्री के सम्मेलन में सभी उच्च पदासीन व्यक्तियों द्वारा न्यायिक सुधार की बातें की गई हैं, लेकिन समय ही गवाह रहेगा कि ये सिर्फ बातें करते हैं या की गई बातों के अनुरूप न्यायपालिका में सुधार भी कर सकेंगे. ऐसे उच्च पदाधिकारियों द्वारा इस तरह की सुधार की बातें वर्षों से की जा रही हैं, लेकिन ‘बातें हैं, बातों का क्या’. अनेक वर्ष पूर्व संविधान संशोधन कर भारतीय न्यायिक सेवा का प्रावधान किया गया था, किंतु इसे कार्यान्वित नहीं किया गया, जो एक उदाहरण है कि संविधान के प्रावधानों का अनुपालन यहाँ नहीं किया जाता है और इसके नहीं करनेवाले भी वे ही लोग हैं, जिन्होंने कभी संविधान में भारतीय न्यायिक सेवा का प्रावधान किया था. पिछले सम्मेलन में भी सारी बातें हुईं, लेकिन भारत के निम्न न्यायालयों, जिसमें जिला जज स्तर तक के न्यायाधीश होते हैं, की चर्चा विस्तार से नहीं की गई, जबकि वर्तमान न्यायपालिका में इसी निम्न न्यायपालिका से आम लोगों को भले ही न्याय नहीं, बल्कि न्याय निर्णय की अपेक्षा रहती है. हमारी निम्न न्यायपालिका ही देश के आम लोगों के लिए न्याय-मंदिर है और हम इसी की उपेक्षा कर रहे हैं. संविधान के तहत न्यायपालिका की स्वतंत्रता को देखते हुए निम्न न्यायपालिका की देख-रेख का दायित्व उच्च न्यायालय को दिया गया है, लेकिन उच्च न्यायालय द्वारा आज तक ऐसा कुछ नहीं किया जाता देखा गया है, जिससे निम्न न्यायालय का सुदृढीकरण हो . निम्न न्यायालय के संगठन के प्रयास के फलस्वरूप एक बार राष्ट्रीय न्यायिक वेतन आयोग का गठन हुआ था, जिसके अध्यक्ष उच्चतम न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश माननीय शेट्टी थे. उन्होंने देश के निम्न न्यायालय के लिए जो काम किया, वही निम्न न्यायालय के लिए एक उपलब्धि है. इस आयोग द्वारा बहुत सारे सुझाव दिए गए थे और एक सुझाव था कि निम्न न्यायालय में प्रतिभाशाली कानून स्नातकों को प्रविष्ट कराया जाए, किंतु उनके सारे सुझाव पुनः न्याय प्रक्रिया की भेंट चढ़ गए. चाहे जो भी हो, जब तक जिला न्यायालय को हम सुदृढ नहीं कर लेते हैं, तब तक इसी तरह चलता रहेगा.
न्याय में विलंब
दो तरह के संकीर्ण प्रतिक्रियाओं से हम रूबरू होते रहते हैं, जिसका संबंध हमारी न्यायपालिका से होता है – “Justice delayed is justice denied” & “Justice hurried is justice burried” . इन दोनों प्रतिक्रियाओं से हमें ऊपर उठकर समय पर न्याय देना होगा, जो तभी संभव है, जब न्यायिक प्रक्रिया, यहाँ तक कि अपील-दर-अपील के प्रावधानों पर हम विचार करें. एक ही फैसला या निर्णय सत्य हो सकता है, जबकि वर्तमान न्यायपालिका में ऐसा देखा जाता है कि निम्न न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले को उच्च न्यायालय बदल देता है और उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय बदल देता है और इसी तरह उच्च न्यायालय के एकल पीठ के निर्णय को डिवीजन बेंच बदल देती है और डिवीजन बेंच के निर्णय को उच्चतम न्यायालय. इन सारे न्याय निर्णयों में पता नहीं कौन निर्णय वास्तविक न्याय के करीब होता है. इससे पूर्णत: छुटकारा पाना संभव नहीं है, किंतु अपील-दर-अपील को कम कर दिया जाए तो न्याय में होती रही देगा एवं जल्दबाजी में होनेवाले न्याय से छुटकारा पाया जा सकता है.
क्यों नहीं निम्न न्यायालय की प्रक्रिया को बदलकर ऐसा प्रावधान किया जाए कि कुछ मामलों में दो और कुछ मामलों में तीन जज की बेंच में निम्न न्यायालय में ही बने और इनके द्वारा दिए गए फैसले को, चाहे जो हो, उसे ही अंतिम फैसला मान लिया जाए. निम्न न्यायालय में दो-तीन न्यायाधीश द्वारा गठित न्याय पीठ होने से आम जनता में न्याय के प्रति विश्वास बढ़ेगा और साथ ही जब दो या दो से अधिक जज एक साथ बैठेंगे तो उसमें से एक दूसरे को उसके अपने व्यक्तित्व में रहने नहीं देगा और निर्णय भी यदि कोई प्रभावशाली व्यक्ति प्रभावित करना चाहेगा तो दो या अधिक जज के होने से संभव नहीं होगा.
एक वाक्य में, यदि केंद्र सरकार, उच्चतम न्यायालय, राज्य सरकार, उच्च न्यायालय यदि न्यायिक प्रक्रिया में सुधार चाहती हैं तो उन्हें तुरंत देश के निम्न न्यायालयों को सुदृढ ही नहीं करना पड़ेगा; बल्कि यहीं से उच्चतम न्यायालय के लिए योग्य जजों को चुनना होगा. इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है. यह मेरा व्यक्तिगत विचार है.
न्यायिक सुधार और वास्तविक न्याय तक पहुँचने के लिए आज आवश्यकता है—न्यायिक आंदोलन एवं ‘न्याय क्रांति’, जिसे आम जनता कर सकती है. प्रजातंत्र में आम जनता ही अंतिम मालिक के रूप में पहचानी जाती है और जब तक यह मालिक सोया रहेगा, तक तक न्यायिक क्रांति नहीं हो सकेगी. आवश्यकता है आम जनता कुछ ऐसा करे, जिससे न्याय निर्णय नहीं, बल्कि वास्तविक न्याय का दर्शन हो सके. ऐसा इसलिए कि आज आंदोलनकारियों की बात की ओर ध्यान दिया जाना देखा गया है. जिस तरह से आजादी से पूर्व हमने आजादी प्राप्ति का आंदोलन किया था, उसी तरह आज भी न्याय निर्णय पाने के लिए करना होगा, अन्यथा कुछ लोग अपने अनुरूप न्यायिक व्यवस्था को चलाते रहेंगे.
जिस न्यायतत्त्व की हम बात कर रहे थे, वह सिर्फ न्यायालय द्वारा ही नहीं अपेक्षित है, बल्कि यह न्यायतत्त्व सरकार, इनकी संस्थाओं, अस्पताल, स्कूल, कॉलेजों एवं ऐसी बहुत सारी संस्थाओं से ही संभव है. हमें निर्णय नहीं, न्याय चाहिए.
वर्तमान न्यायपालिका एवं न्यायिक प्रक्रिया पर दृष्टि डालने से निम्न यथार्थ से टकराहट होती है. (1) फौजदारी न्याय प्रक्रिया अनुसंधान की गिरफ्त में है. इसी तरह (2) दीवानी न्याय प्रक्रिया संविधान एवं अन्य कानूनी व्याख्या की गिरफ्त में है. हमें दोनों तरह की न्याय प्रक्रियाओं को इन गिरफ्तों से बाहर निकालना होगा. फौजदारी न्याय प्रक्रिया के अनुसंधान की गिरफ्त में होने के फलस्वरूप ही कभी-कभी असली अपराधियों को रिहा कर दिया जाता है तथा कभी-कभी निर्दोष को भी फाँसी तक की सजा सुना दी जाती है. ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि सामूहिक हत्याकांड के दोषियों को भी अनुसंधान की कमियों के कारण रिहा कर दिया गया. इसी तरह दीवानी न्याय प्रक्रिया कानूनों की व्याख्या की गिरफ्त में होने के कारण सत्य साबित नहीं हो पाती है एवं जो निर्णय होता है, वह सत्य के प्रतिकूल होता है. वस्तुतः वर्तमान न्यायपालिका में झूठ को सत्य साबित कर देने की संभावना बनी रहती है, उसी तरह सत्य को झूठ साबित कर देने की संभावना कम नहीं है.
उपाय – (1) हमें अंग्रेजों द्वारा बनाए गए सारे कानून (Laws), जिन पर ही हम आज भी चल रहे हैं, सारे Criminal एवं Civil Laws को बदलकर अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के अनुरूप कानून बनाना होगा. (2) हम जिसे भी न्यायाधीश या पंच घोषित करें, उस न्यायाधीश या पंच में परमेश्वर की स्थापना करनी होगी, जो तुरंत करना चाहिए- देश के न्यायालयों में जजों की नियुक्ति सिर्फ एक बार होनी चाहिए और वह भारतीय न्यायिक सेवा काडर में होनी चाहिए. भारतीय न्यायिक सेवा से चुनकर आए जजों की नियुक्ति निम्न न्यायालयों में करनी चाहिए एवं इन्हें ही प्रोन्नति देकर उच्च एवं उच्चतम न्यायालय तक ले जाना चाहिए. ऐसी स्थिति में उच्च न्यायालय तक पहुँचते-पहुँचते इन्हें न्यायिक प्रक्रिया का पूर्ण अनुभव एवं ज्ञान भी हो जाएगा और तब तक ये अच्छे न्यायाधीश के रूप में परिवर्तित हो चुके होंगे एवं अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठ चुके होंगे. ऐसा किया गया तो अभी से हमारी न्यायपालिका के प्रति लोगों की आस्था दृढ होगी.
आज जो हम संविधान के अनुरूप उच्च एवं उच्चतम न्यायालय में वकीलों की सीधी भरती करते हैं, वह भी आवश्यक है, किंतु सावधानी बरतनी होगी कि ऐसे वकील कानून के ज्ञाता तो होते हैं, किंतु न्यायाधीश का व्यक्तित्व तभी आता है, जब इन्हें न्यायाधीश के पद पर काम करने का मौका मिलता है. संभवतः यही कारण है कि संविधान के अनुच्छेद 217 में उच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति के मात्र दो स्रोत का उल्लेख मिलता है, जिसमें एक स्रोत जिला न्यायालय के न्यायिक पदाधिकारी का है और दूसरा वकीलों से है, लेकिन इस अनुच्छेद में किस स्रोत से कितने न्यायाधीशों को लिया जाएगा, इसका अनुपात नहीं दिया गया है और आज वकीलों से 70 प्रतिशत और निम्न न्यायालयों के पदाधिकारी से मात्र 30 प्रतिशत का उच्च न्यायालयों में पदस्थापन अपने आप प्रश्नचिह्न है. इस अनुपात पर न्याय एवं न्यायपालिका के हित में ध्यान देना संभवत: आवश्यक प्रतीत होगा.