कांग्रेस का संकट गहराया, एकजुटता के नाम पर झुकने को तैयार नहीं साथी दल
पटना (TBN – वरिष्ठ पत्रकार अनुभव सिन्हा की रिपोर्ट)| कांग्रेस पार्टी की जब भी बात होगी, राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में ही होगी. 2014 के पहले तक पर्दे में और उसके बाद खुलकर देश विरोधी गतिविधियों में शामिल रहने वाली यह पार्टी सर्वाधिक बुरे दौर में है. यह दौर आगामी लोकसभा चुनाव की दृष्टि से उसके भविष्य के संकुचन का है. पांच राज्यों के चुनाव परिणाम इसकी मुनादी कर रहे हैं. हालांकि तेलंगाना में पार्टी ने जीत दर्ज की. पर वहां एक भ्रष्ट सरकार को बाहर कर उस पार्टी की सरकार बनेगी जो देश में भ्रष्टाचार की जननी रही है. इस एक मात्र जीत पर कांग्रेस को बधाई देने के बजाय उसके साथी दलों ने परोक्ष रूप से गहरी आपत्ति ही जताई है जब पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने साथी दलों को दरकिनार कर अकेले प्रचार किया. यह उसके बुरे दौर का एक कारण है जो 6 दिसम्बर बुधवार को इंडी अलायंस की प्रस्तावित बैठक में अन्य दूसरे कारणों को मजबूती दे सकता था. पर कांग्रेस ने यह बैठक टाल दी है.देश पर हुकूमत करने का झूठा गुमान पालने वाली पार्टी को अब क्षेत्रीय साथी दल ज्ञान पिलाने पर अमादा हैं और इसी से उसके बुरे दौर की झलक साफ-साफ दिखाई पड़ती है.
भाजपा की तीन राज्यों में जीत से कांग्रेस जहां पस्त है वही साथी दलों की भी नसें ढीली हुई हैं. कांग्रेस जैसा सदमा साथी दलों को तो नहीं लगा है पर इस मनोदशा का भी लाभ भाजपा को न मिले, इसे ध्यान में रखकर कम-से-कम बिहार के साथी दलों ने थोडी़ नरमी बरतते हुए कांग्रेस को बडा़ दिल दिखाने की नसीहत जरूर दी है. दरअसल, कहने के लिए साथी दल तो हैं पर कांग्रेस की कमजोर नस को दबाने में पीछे भी नहीं हैं क्योंकि ऐसा करने पर ही उनका मकसद पूरा होगा. मकसद यह है कि जिन राज्यों में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के भरोसे है वहां उसे जितनी सीट दी जाए, उसपर संतोष कर ले. जबकि, ऐसा करना कांग्रेस के लिए आत्मघाती है क्योंकि उसका अखिल भारतीय स्वरूप सिमट जायेगा और वह क्षेत्रीय दलों के अधीन रह जायेगी.
इसलिए मोदी विरोधी दलों की एकजुटता के सूत्रधार नीतीश कुमार ने भी प्रस्तावित बैठक से दूरी बनाई थी. अखिलेश यादव और ममता बनर्जी का कांग्रेस के प्रति नजरिया जग जाहिर है. चूंकि इंडी अलायंस नरेन्द्र मोदी को सत्ता से हटाने के नाम पर ही बना है, इसलिए परिणाम वाले दिन यानी 3 दिसम्बर को यह बताया गया कि हार कांग्रेस पार्टी की हुई है इंडी अलायंस की नहीं. परोक्ष रूप से साथी दलों ने कांग्रेस की अहमन्यता से भरी प्रवृति पर ही निशाना साधा है और सीट बंटवारे में नरमी या रियायत के मूड में जरा भी नहीं है. उनकी अपनी अस्मिता भी दांव पर ही है.
इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि कांग्रेस के पराभव का राष्ट्रीय असर क्या हो सकता है. ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल की पार्टी का कांग्रेस के प्रति रूख बदलेगा, इसमें संदेह है. शरद पवार और एम के स्टालिन का स्टैण्ड भी हाल के दिनो में बदला है. इन प्रमुख दलों के अलावा इंडी अलायंस में और जो छोटे-छोटे दल हैं, उनकी स्थिति सिर्फ संख्या के नाम पर ही है और ये किसी भी रूप में काग्रेस को चुनावी लाभ दिलाने में प्रभावी भूमिका नहीं निभा सकते. इससे यह अनुमान तो होता है कि हिन्दी पट्टी से साफ हो जाने के बाद कांग्रेस की राष्ट्रीय मुसीबतें कितनी बढ़ गईं हैं और कैसे क्षेत्रीय दल अलायंस के नाम पर अपना सिक्का चलाने पर अमादा हैं.
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का एक बुलावा तो टल गया पर बैठक 18 दिसम्बर या उसके पहले हो सकती है. ध्यान देने की बात यह है कि इंडी अलायंस की बैठक में सीटों के बंटवारे पर बातचीत के संतुलित न होने की स्थिति, राजनीति के जिस आयाम का रास्ता खोलेगी, वह बिल्कुल नया होगा. राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का प्रवेश नया नहीं है, पर अब उनका दखल हो सकता है, यह नयी बात होगी. यह स्थिति यदि देश के सामने आती है तो जाहिर है ऐसा कांग्रेस की कीमत पर ही होगा.
देश पर सबसे ज्यादा समय तक शासन करने का गुमान पाल बैठी कांग्रेस की मौजूदा स्थिति उसकी अपनी नीतियों का ही बाई-प्रोडक्ट है. अपने हिडेन ऐजेंडा के तहत भारत को विश्व बाजार बनाए रखना और तुष्टीकरण को बढा़वा देने से जो क्षेत्रीय असंतुलन पैदा होता गया, उससे विकास तो अवरूद्ध हुआ पर क्षेत्रीय राजनीति परवान चढ़ती गई. आज वही क्षेत्रीय राजनीति कांग्रेस को घुटने पर लाने के लिए आतुर है. इसलिए इस प्रतिशोधी राजनीति का मुकाबला भाजपा किस तरह से करेगी जिससे 2014 से हुए बदलाव और विकास की रफ्तार बनी रहे, यह देखना भी उतना ही दिलचस्प होगा.