जन सुराज पदयात्रा: न भूतो न भविष्यति
पटना / प. चंपारण (TBN – अनुभव सिन्हा)| जन सुराज पदयात्रा (Jan Suraaj Padyatra) जारी है. पहला सप्ताह समापन की ओर है. मुख्यतः ग्रामीण इलाकों से शुरु हुई इस यात्रा का मक़सद लोकतांत्रिक प्रक्रिया को जड़ों तक मजबूत कर उस जीवंतता की स्थापना करना है जिसे व्यावहारिक अर्थों में हर व्यक्ति अपनी सहभागिता की अनुभूति करे.
यह ऐसा प्रयोग है जिसपर आम तौर पर आजादी के बाद से अबतक लोगों की अनुभूति सर्वथा विपरीत और निराशाजनक रही है. अबतक सत्ता में बने रहने और सत्ता प्राप्ति की लालसा पाले दलों का आचरण आम लोगों को जड़ बना चुका है. जन सुराज पदयात्रा उस जड़ता को तोड़ता है.
एक तपे-तपाऐ अंदाज में शुरु की गई डेढ़ साल की इस पदयात्रा पर कितना होमवर्क हुआ होगा, यह तो सिर्फ प्रशांत किशोर (Prashant Kishore) और उनकी आईपीएसी (IPAC) टीम को पता है लेकिन उसका रिफ्लेक्शन जैसा उन्होने चाहा, वैसा नजर आता है.
इस यात्रा के दौरान प्रशांत किशोर ने पहले दिन यानी 2 अक्टूबर को पहली और 5 अक्टूबर को दूसरी घोषणा की. जबतक कस्तूरबा बालिका उच्च विद्यालय, भितिहरवा का सरकारीकरण नहीं होता तबतक, 650 छात्राओं वाले इस विद्यालय का खर्च वह स्वंय वहन करेंगे. हालांकि, यह घोषणा स्थानीय स्तर की है पर शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय से जुड़ी है. यानी, किशोरियों को उन्होने पंख लगा दिए हैं.
उनकी दूसरी घोषणा गौनाहा प्रखण्ड के ही जमुनिया गांव की है जो अपेक्षतया पूरे बिहार से जुड़ी है. यहां उन्होने कहा कि मौका मिलने पर उनकी कोशिश होगी कि 6 से 12 महीने के अंदर देश के अन्य सारे राज्यों में काम करने वाले बिहारियों को वापस बुलाकर उन्हें यहीं काम दिया जाए. उनकी इस घोषणा का मतलब बड़ा है और उसे पूरा करने का ब्लू प्रिंट भी तैयार है. यह पूरे बिहार के लिए है.
अभी (09 अक्टूबर) वह पश्चिम चम्पारण के मैनाटांड़ प्रखण्ड दौरे पर हैं. प्रतिदिन जब उनकी पदयात्रा शुरू होती है, वह पूरे गांव का भ्रमण करते हैं. महिलाओं से, बुजुर्गों से, युवकों से, कामगारों से मिलते हैं. उनका मिलना-जुलना ही असल चीज है. वह औपचारिक नहीं होता, उस समय वह प्रत्यक्ष तौर पर उनको कनेक्ट कर लेते हैं. अर्थशास्त्र के गहन अध्ययन का सूक्ष्म आचरण पूरे गांव वालों को एक सूत्र में पिरो देता है.
मजेदार यह है कि राजनीतिक दलों के नेताओं से अलग वह ग्रामीणों से वर्तमान की बात करते हैं, जिससे समस्यायों के मूल तक पहुंच पाते हैं और उसके स्थानीय समाधान का ब्लूप्रिंट तैयार करने में उनको सहूलियत होती है. इसका परिणाम यह होता है कि जब एक गांव को पूरी तरह से समझ लेने के बाद वह दूसरे गांव की पदयात्रा के लिए निकलते हैं तब पूरा गांव उनके साथ हो लेता है और गांव की सीमा पर उनलोगों को विदा कर वह अगली यात्रा पर निकल पड़ते हैं.
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इतनी ईमानदार कोशिश कभी नहीं हुई. राज्य सरकारों (पिछले 17 वर्षों से बिहार का मुख्यमंत्री एक ही व्यक्ति है) के विकासपरक दावे सरकारी विभागों की कार्यप्रणाली और कार्यक्षमता पर आधारित और निर्धारित होती रही है जिसमें भ्रष्टाचार और पक्षपात की पूरी गुंजाइश रहती है और छोड़ी भी जाती है. इसलिए सरकारें यह मानकर चलती हैं कि विकास ऐसे ही होता है, जबकि कदम-कदम पर ग्रामीण इलाके इसका खण्डन करते नजर आते हैं. इस बड़े गैप, इतने बड़े असंतुलन के साथ विकास की दुदुम्भी बजाने वाली राज्य सरकार, फिर भी, जब बिहार को पिछड़ा बताती है, तब उसका एक ही मतलब होता है कि आमूल-चूल परिवर्तन अब समय की मांग है जिसका दारोमदार ग्रामीणों के उपर है. उस बड़ी ग्रामीण आबादी को पीके झकझोर रहे हैं.
यह बहुत मजेदार है कि पीके की पदयात्रा जितनी इंटेंस है, उसकी सम्भावनाएं भी उतनी ही ज्यादा हों. डेढ़ साल तक चलने वाली इस पदयात्रा से क्या-क्या निकलेगा, यह मंथन पूरा होने पर सामने आयेगा, लेकिन एक बात साफ है कि बिहार के इस लाल, पीके ने जो कदम उठाया है वह बिहार के गुरुत्व को प्रदर्शित करता जा रहा है.
दुनिया को पहला लोकतंत्र देने वाली बिहार की भूमि ही वह सम्यक भूमि हो सकती है जहां ढाई हजार साल बाद एक बार फिर से लोकतांत्रिक ढांचे का पुर्ननिर्माण हो और देश की गुरुता का केन्द्र बने…..क्योंकि वह गुरुत्व बिहार में ही है, कहीं और नहीं.
इसलिए जब पीके की पदयात्रा की चर्चा दिल्ली सहित देश के अन्य भागों में शिद्दत से होती हो और खुद बिहार पीछे रह जाता हो, तब विकास के पैमाने का यह शिफ्ट उस असंतुलन का ही इशारा करता है जो विभिन्न कारणों से पूर्वाग्रह से ग्रस्त होता चला गया. इसलिए पीके की यह पदयात्रा किसी राजनीतिक लाभ के लिए ‘लकीर का फकीर’ जैसा न होकर व्यवस्था परिवर्तन के लिए है.