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अकेला बनाम सब = जन सुराज पदयात्रा

पटना (TBN – अनुभव सिन्हा की स्पेशल रिपोर्ट)| जन सुराज पदयात्रा (Jan Suraaj Padyatra) का सोमवार 10 अक्टूबर को दूसरा सप्ताह शुरु हो गया. ग्रामीण इलाके से शुरु हुई इस पदयात्रा का रेसपांस अपवार्ड है. अंदाज बिल्कुल गंवई है जिससे खुले मन से लोग इससे जुड़ते जा रहे हैं. डेढ़ साल तक चलने वाली यह पदयात्रा जितने अनूठे परिणाम दे वह समय की बात है, लेकिन इतने लम्बे समय तक चलने वाली देश की यह पहली पदयात्रा है. तब यह सवाल स्वाभाविक है कि आखिर इस पदयात्रा की पृष्ठभूमि क्या है?

पूरे बिहार का भ्रमण इस पदयात्रा में शामिल है जिसमें 3500+ किलोमीटर की दूरी तय होगी. आजादी के कुछ समय बाद तक बिहार देश के समृद्ध राज्यों की श्रेणी शुमार था. कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व था. बिहार की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी. सत्तर के दशक में हुए एक अल्पकालिक प्रयोग पर ग्रहण लग गया और कांग्रेस की सत्ता में वापसी तो हुई पर उसकी दुर्बलताएं ज्यादा साफ नजर आईं, लेकिन 1990 के चुनाव में जीत कर आई जनता दल की सरकार, फिर राजद, फिर एनडीए की सरकारों के दौरान कांग्रेस पार्टी का वजूद सिमटता चला गया.

इस तरह आजादी के बाद बिहार के सामने दो कालखण्ड हुए. आजादी के बाद से 1990 के फरवरी तक कांग्रेस का काल और उसके बाद से लेकर मौजूदा वक्त तक राजद (RJD), एनडीए (NDA) और फिर गड़बड़झाला का कालखण्ड. बिहार बद से बदतर होता गया. यहां की श्रम शक्ति ने दूसरे प्रदेशों को आगे बढ़ाने में सहयोग किया और बिहार के शासक वर्ग ने गजब की काहिली, भ्रष्टाचार, अपराध और समाज को बांट देने में अपना कीर्तिमान स्थापित किया. राजद काल में बिहार के सारे उद्योग बंद हो गए तो रही-सही कसर दक्षिण बिहार के अलग झारखण्ड राज्य बन जाने ने पूरी कर दी.

बिहार में गैर-कांग्रेसी काल

गैर-कांग्रेसी काल को फिर दो भाग में बांटा जाना चाहिए. पहला लालू काल (1990-2005) और दूसरा नीतीश काल (2005 से अबतक). लालू काल घोटाला, अपराध, लूट, हिंसा का काल रहा तो नीतीश काल बिहारी समाज के लिए ज्यादा हानिकारक सिद्ध हुआ. बिहार की सबसे बड़ी थाती इसकी शिक्षा का पुरातन गौरव है. नीतीश काल में शिक्षा का प्रारम्भ ही कमजोर कर दिया गया. यहां की गरीब और ग्रामीण आबादी लालू-नीतीश की हानिकारक राजनीति का शिकार होती रही. पहले एक दलित वर्ग था. नीतीश कुमार ने उसके टुकड़े कर दिए. अब गरीब ही गरीब का दुश्मन बन गया. न बेहतर शिक्षा, न प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि, न रोजगार, न कोई सपना, न उत्साह और न ही कोई मार्ग दिखाने वाला. यह योगदान इंजीनियरिंग की शिक्षा को सोशल इंजीनियरिंग में डायवर्ट करने वाले नीतीश कुमार का है.

प्रशांत किशोर की पृष्ठभूमि

जन सुराज पदयात्रा की यही पृष्ठभूमि है. यह समझना बड़ा दिलचस्प है कि जिन्होंने यह पदयात्रा शुरू की, यानी प्रशांत किशोर (Prashant Kishore) की पृष्ठभूमि क्या है और कितनी जबरदस्त है. लगभग एक दशक तक अमेरिका में रहने के बाद स्वदेश लौटे प्रशांत किशोर लोगों के जेहन में 2014 से हैं. भारतीय राजनीतिक क्षेत्र के एक सफल रणनीतिज्ञ के रुप में उनकी धमाकेदार इंट्री 2014 के लोकसभा चुनावों के समय हुई. नरेन्द्र मोदी की जीत का श्रेय उनकी रणनीति को दिया जाता है.

प्रशांत किशोर यहीं पर नहीं रुके. राष्ट्रव्यापी पहचान बनाने में उन्हें देर नहीं लगी जब एक के बाद एक विभिन्न राज्यों में उनकी रणनीति पर काम करते हुए विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपनी सरकारें बनाईं. इनमें बिहार भी शामिल है जब नीतीश कुमार ने एनडीए से अलग होकर और धुर विरोधी राजद के साथ महागठबंधन की पहली सरकार 2015 में बनाई थी. तब बिहार में ‘ नीतीशे सरकार ‘ का नारा खूब पापुलर हुआ था. यह नारा प्रशांत किशोर की देन थी.

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अब वही प्रशांत किशोर जन सुराज पदयात्रा पर हैं. कोई शोर-शराबा नहीं, कोई तामझाम नहीं, लेकिन उनकी आवाज गूंजने लगी है. किसी भी राजनीतिक दल से उनका संबंध नहीं है. जैसा उन्होने कहा, वह बापू (महात्मा गांधी) के बताए मार्ग पर पूरे विश्वास के साथ आगे बढ़ रहे हैं. यह बात दूसरे राजनीतिक दलों को नागवार गुजर रही है. क्योंकि सबों का दावा बापू के बताए मार्ग पर ही आगे बढ़ने का है, जबकि भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं के चेहरे जनता के सामने आते गए हैं.

लगभग आमलोगों की तरह गरीबी देखने वाले लालू यादव ने आज की तारीख में भ्रष्टाचार की काली कमाई का जखीरा खड़ा कर लिया है, जिसकी जांच चल रही है. सारे राजनीतिक दलों की यही मान्यता है कि बिहार का विकास इसी तरह से धीरे-धीरे होता जायेगा, इस तरीके में कैसे कोई बदलाव ला सकता है, समय का पहिया पीछे की ओर कभी नहीं मुड़ा आदि-आदि.

तब यह बात साफ होती है कि प्रशांत किशोर ने नब्ज पकड़ ली है. उनकी जन सुराज पदयात्रा का उद्देश्य ही व्यवस्था परिवर्तन का है. उस भ्रष्ट व्यवस्था का परिवर्तन जिसमें सारे दल आकंठ डूबे हुए हैं ! किसी भी राजनीतिक दल ने ऐसा साहस नहीं दिखाया जो उनके उद्देश्य को चुनौती दे सके, पर उद्देश्य की शुचिता से कोई भी इंकार करने की स्थिति में नहीं है.

बिहार के राजनीतिक दलों ने प्रशांत किशोर के उद्देश्य की सफलता पर भले कोई सवाल खड़ा न किया हो, मौके की तलाश जारी है. दलों की अपनी सीमाएं हैं जबकि प्रशांत किशोर के समक्ष ऐसी कोई सीमा रेखा नहीं है. वह जिस तरह से ग्रामीणों से मिलते हैं, उनसे कनेक्ट होते हैं, ग्राउण्ड जीरो पर जाकर किसी भी राजनीतिक दल ने ऐसा पहले कभी नहीं किया. इससे जो परशेप्शन बदल रहा है और आने वाले समय में जिसकी गति तेज हो सकती है, भ्रष्ट राजनीति के आधार पर खुद को पुरोधा समझने वाले बिहारी नेता इसीलिए सकते में हैं.